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एक बार पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. ने कहा था - 'आप 'उपयोगी लक्षणम्' पर लिखते हैं, परन्तु 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।' इस पर लिखने की इच्छा क्यों नहीं होती ?' परोपकार का पदार्थ उसमें से ही मिलेगा । अच्छा आपका जन्म कब हुआ ?
मैंने कहा, 'वि. संवत् १९८० में मेरा जन्म हुआ था ।'
'तो आपका दोष नहीं है । काल ही ऐसा है। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् आपका जन्म हुआ है । तत्पश्चात् मनुष्यों में स्वार्थवृत्ति अत्यन्त ही बढ़ गई है। उससे पूर्व परोपकार सहज रूप में जीवन में बुना हुआ था ।' पू. पंन्यासजी ने कहा ।
जब नगीनदास करमचंद का संघ कच्छ में आया तब लोग सामने चलकर मुफ्त में घी, दूध, दहीं आदि देने आये थे ।
क्या आज ऐसी वृत्ति है ? दूध तो ठीक, आज छास भी कोई मुफ्त में नहीं देता । आज तो पानी भी बेचा जाता है ।
* (२) परम्पर प्रयोजन : श्रोता एवं वक्ता दोनों का परम्पर प्रयोजन मोश्र-प्राप्ति है।
प्रश्न : चैत्यवन्दन ही निरर्थक है। आप नमुत्थुणं बोलें, चीखो, शोर मचाओ जिससे क्या आपका मोक्ष हो जायेगा ? क्या मोक्ष इतना सस्ता है ?
उत्तर : प्रकृष्ट शुभ अध्यवसाय का कारण होने से चैत्यवन्दन व्यर्थ नहीं है । शुभ-अध्ववसाय सद्गति एवं सिद्धिगति का परम कारण है ।
इसके द्वारा ग्रन्थकार बताते हैं कि चैत्यवन्दन आदि किया शुभ भाव पूर्वक करनी चाहिये । हममें से अनेक गुरुवन्दन अथवा चैत्यवन्दन इस प्रकार करते हैं मानो बेगार निकालते हों । इस प्रकार चैत्यवन्दन सफल कैसे हो ?
शुभ अध्यवसाय पूर्वक चैत्यवन्दन करना अर्थात् कर्मों की छावनी पर 'एटम बम' रखना ।
चैत्यवन्दन से सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन मिलता है। सम्यग्दर्शन आते ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाता है, और चारित्र सम्यक् चारित्र बन जाता है।
दीक्षा ग्रहण करते समय रजोहरण प्रदान करने से पूर्व इसीलिए चैत्यवन्दन आदि क्रिया कराई जाती है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३nsmommmmmmmmmmmmmms १५)