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मैं पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. को अनेक बार पूछता : आपके बाद हमारा क्या होगा ? हमें कौन मार्ग-दर्शन देगा ? सद्गुरु को कैसे पहचानें ?' वे कहते, 'जो अपने सद्गुरु एवं भगवान को याद करते हुए गद्गद् हो जाये वह सद्गुरु है, यह मानें; ज्ञान न देखें...'
केवल अष्टप्रवचन- माता का ज्ञान चलेगा, परन्तु वह प्रभु में तन्मय बना हुआ होना चाहिये । वह व्यक्ति सब कुछ दे सकता है । केवल ग्रहण करने वाले को खाली होने की आवश्यकता है । प्रकाम - तीव्र, निकाम * बार बार की छोटी-छोटी इच्छाओं में से मुक्त होना है । इसके बिना गुरु के प्रति समर्पण नहीं आता । इच्छा गई तो समर्पण गया । इच्छा है वहां भाव - निद्रा है । इच्छा से आप दौड़ों तो भी निद्रा में ही हैं । मुनि सदा जागृत होते हैं । इच्छा के कारण गुरु की शक्ति की धारा रुक जाती है । पेट्रोल से मोटर दौडती है, उस प्रकार प्रभु की शक्ति से हम धर्म- क्रिया कर रहे हैं यह मानें तो ही सच्चा धर्म बनता है ।
हमारा धर्म संसार के लिए है !
प्रभु का धर्म मोक्ष हेतु है !! हम अपना धर्म मान बैठे । 'शिष्यस्य सर्वं गुर्वायत्तम् । 'गुरोः सर्वं परमायत्तम्' ।
परम (प्रभु) के अधीन न हो वह गुरु ही नहीं है । प्रभु गुरु के बिना सीधे नहीं मिल सकते, पंचसूत्र में स्पष्ट कहा है । इच्छाओं से निरावरण बनने वाले ही गुरु के कृपा-पात्र बन सकते हैं। मुझे कुछ नहीं करना है । गुरु कहें वही करना है । मैंने किया इसलिए तो संसार में भटका ।
हैं ।
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पकड़ती है पुलिस, परन्तु सचमुच सरकार पकड़ती है । करते हैं धर्म हम, परन्तु कराते हैं प्रभु । गुरु प्रभु के माध्यम
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कहे कलापूर्णसूरि