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* दूधपाक सर्वोत्तम है, परन्तु खाने वाले के पाचन-तन्त्र को देखकर ही दिया जाता है, उस प्रकार सूत्र सर्वोत्तम है, परन्तु सामने वाले की योग्यता देखकर ही दिया जाता है । टाइफोईड वाले को दूधपाक नहीं दिया जाता उस प्रकार अयोग्य व्यक्ति को सूत्र नहीं दिये जाते ।
यहां अयोग्य पर द्वेष नहीं, परन्तु करुणा ही है। टाइफोईड वाले पर द्वेष थोडा है? वह यदि दूधपाक खायेगा तो उसे ही हानि होगी । अयोग्य व्यक्ति सूत्र पढ़ेगा तो सर्व प्रथम उसे ही हानि होगी।
* किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करनी हो तो भगवान को आगे करें । भगवान साक्षात् न हो तो भगवान का वचन (शास्त्र) आगे करें । वह यदि आगे हो तो भगवान ही आगे हैं, यह मानें । __ भगवान जहां आगे हैं वहां सफलता मिलेगी ही।
* 'चलता है जैसे चलने दें, विधि-अविधि की सिरपच्ची छोड़ें । सब करें वैसे करें ।' ऐसी वृत्ति लोक-संज्ञा है । लोक-संज्ञा अर्थात् गतानुगतिकता । लोकहेरी । इसका त्याग किये बिना विधि में आदर नहीं बन सकेगा ।
* दुकान पर बिठाने से पूर्व पिता पुत्र को अनेक प्रकार का ज्ञान कराता है, उस प्रकार ग्रन्थ के प्रारम्भ से पूर्व योग्यताअयोग्यता आदि की बातें ग्रन्थकार कहते हैं ।
एक बात समझ लें - मार्ग पर चलना हो तो शास्त्रानुसारी वचनों के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है ।
पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी म. -
बुद्धि हम में भ्रान्ति उत्पन्न करती है । बुद्धि को एक ओर रखें, मृतवत् जीयें । अहंकार की मृत्यु ही साधु का जीवन है । गृहस्थ किसी की मृत्यु के पश्चात् श्वेत वस्त्र ओढ़ते हैं । वह हम नित्य ओढ़ते हैं ।
कानून की भाषा में अपनी 'सिविल डेथ' हो चुकी है।
अहं की मृत्यु के बिना गुरु-समर्पण नहीं आता । इसके बिना साधकता प्रकट नहीं होती । साधक के लिए सद्गुरु ही शास्त्र हैं, जैसे न्यायालय में जज बोलता है वही कानून कहलाता है । (२८0 monsoom
कहे कलापूर्णसूरि - ३)