________________
परन्तु आज तो दशा ऐसी है कि ४५ आगमों के नाम भी बराबर आ जायें तो भी बड़ी बात गिनी जाये ।
पैंतालीस आगमों में वर्णन तो मिलता है, परन्तु तदनुरूप जीवन देखने-पढ़ने को मिले तब अत्यन्त ही आनन्द हो । आज ऐसा ही एक जीवन ( पू. श्री जीतविजयजी म. का) प्रातः काल में हमें सुनने को मिला ।
* असंग-अनुष्ठान प्राप्त करने के लिए हम उत्सुक हैं । शीघ्र आत्मानुभव हो जाये तो कितना उत्तम ? परन्तु आत्मानुभव ( असंग ) के लिए भगवान की आज्ञा का पालन ( वचन योग ) चाहिये | भगवान की आज्ञा का तब ही बराबर पालन हो सकता है, यदि उनके प्रति हृदय-पूर्वक भक्ति हो ( भक्ति योग ) । भक्ति तब ही आती है यदि भगवान पर हृदय का प्रेम ( प्रीति योग ) हो ।
प्रारम्भ सदा प्रीतियोग से हो सकता है, परन्तु हम सीधी चौथी मंजिल (असंग योग ) का निर्माण करना चाहते हैं ।
1
नींव भरे बिना घर बन सकता हो तो प्रीति योग के बिना असंग योग आ सके । लगभग १५०० वर्ष पूर्व हो चुके (पूर्वधरों के निकटवर्त्ती) पूज्य श्री हरिभद्रसूरिजी के ये पदार्थ हैं । उनके कितने ही पदार्थ हमें सर्वथा नवीन लगते हैं, आगमों में न हों वैसे लगते हैं, परन्तु समझना पड़ेगा कि उनका काल पूर्वधरों के निकट का था, पूर्व चाहे विच्छिन्न हो गये होंगे, परन्तु उनकी कुछ बूंदे रह गई होंगी, जो ऐसे पदार्थों से हमें समझ में आते हैं ।
हरिभद्रसूरिजी ने कहा हैं : विशिष्ट प्रकार के क्षयोपशम के बिना ऐसे सूत्रों (चैत्यवन्दन सूत्र ) के प्रति प्रेम प्रकट नहीं होता, विधि तत्परता नहीं आती, औचित्य भी नहीं आता ।
लोक-विरुद्ध व्यवहार (जुआ आदि सात व्यसन) करने वाला ऐसे सूत्र के लिए योग्य नहीं गिना जाता । जिसका मस्तिष्क ठिकाने न हो वही इस लोक और परलोक के विरुद्ध कार्य करता है । बुद्धिमान तो दोनों लोकों में हितकर हो वैसी ही प्रवृत्ति करता है । इस 'ललित विस्तरा' (बौद्धों में भी इस नाम का एक ग्रन्थ है) का यदि आप समुचित अध्ययन करें तो आपका चैत्यवन्दन
-
कहे कलापूर्णसूरि - ३
ACHARYA SHR KAILASSAGARSURI GYANMANDIR