Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम प्रतिपत्ति सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के २३ द्वारों का निरूपण - ज्ञान द्वार
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! वे जीव क्या चक्षुदर्शनी हैं, अचक्षुदर्शनी हैं, अवधिदर्शनी हैं या केवलदर्शनी हैं ?
उत्तर - हे गौतम! वे जीव चक्षुदर्शनी नहीं हैं, अचक्षुदर्शनी हैं, अवधिदर्शनी नहीं हैं, केवलदर्शनी नहीं है।
विवेचन - जिसमें महासत्ता का सामान्य प्रतिभास (निराकार झलक) हो, उसे 'दर्शन' कहते हैं । दर्शन के चार भेद हैं
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१. चक्षुदर्शन - नेत्र जन्य मतिज्ञान से पहले होने वाले सामान्य प्रतिभास या अवलोकन को 'चक्षुदर्शन' कहते हैं।
२. अचक्षुदर्शन - नेत्र के सिवाय दूसरी इन्द्रियों और मन संबंधी मतिज्ञान के पहले होने वाले सामान्य अवलोकन को 'अचक्षुदर्शन' कहते हैं ।
अवधिज्ञान से पहले होने वाले सामान्य अवलोकन को 'अवधिदर्शन'
३. अवधिदर्शन
२७
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कहते हैं ।
४. केवलदर्शन - केवलज्ञान के उपयोग के बाद होने वाले सामान्य धर्म के अवलोकन (उपयोग ) को केवलदर्शन कहते हैं। छद्यस्थों में पहले दर्शन का उपयोग होता है बाद में ज्ञान का उपयोग होता है जबकि केवली में पहले ज्ञान का उपयोग होता है फिर दर्शन का उपयोग होता है।
सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में इन चार दर्शनों में केवल एक अचक्षु दर्शन ही पाया जाता है । शेष तीन दर्शन नहीं पाये जाते हैं ।
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१५. ज्ञान द्वार
ते णं भंते! जीवा किं णाणी अण्णाणी ?
गया! णो णाणी अण्णाणी, णियमा दुअण्णाणी, तंजहा- मइ अण्णाणी य सुयअण्णाणी य ।
भावार्थ- प्रश्न हे भगवन्! वे जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ?
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उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी नहीं होते हैं अज्ञानी होते हैं। नियम से दो अज्ञान वाले होते हैं। यथा मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी ।
विवेचन - किसी विवक्षित पदार्थ के विशेष धर्म को विषय करने वाला 'ज्ञान' कहलाता है। इसके दो भेद हैं- सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान । सम्यग्ज्ञान के पांच भेद हैं १. मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान
३. अवधिज्ञान ४. मनः पर्यवज्ञान और ५. केवलज्ञान ।
१. मतिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे 'मतिज्ञान' कहते हैं ।
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