Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 266
________________ तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय नैरयिक उद्देशक - नरकों में शीत उष्ण वेदना २४९ भावार्थ - जैसे कोई मदोन्मत्त हाथी जो साठ वर्ष का है प्रथम शरत्काल समय में अथवा अंतिम ग्रीष्मकाल समय में गर्मी से पीडित हो कर तृषा से आकुल व्याकुल होकर, दावाग्नि की ज्वालाओं से झुलसता हुआ, आतुर, शुषित, पिपासित, दुर्बल और क्लान्त बना हुआ एक बड़ी पुष्करिणी को देखता है जिसके चार कोने हैं, जो समान तीर (किनारे) वाली है, जो क्रमशः आगे आगे गहरी है जो अचाह जलवाली है जिसका जल शीतल है, जो कमलपत्र कंद और मृणाल से ढंकी हुई है जो बहुत से खिले हुए केसर प्रधान उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमलों से युक्त है जिसके कमलों पर भ्रमर रसपान कर रहे हैं, जो स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई है जिसमें बहुत से मच्छ, कच्छप इधर उधर घूम रहे हों, अनेक पक्षियों के जोडों के चहचहाने के शब्दों के कारण से जो मधुर स्वर से शब्दायमान हो रही है ऐसी पुष्करिणी को देख कर वह उसमें प्रवेश करता है, उसमें प्रवेश करके वह अपनी गर्मी को शांत करता है, तृषा को दूर करता है, भूख को मिटाता है, ताप जनित ज्वर को नष्ट करता है और दाह को उपशान्त करता है। इस प्रकार गर्मी आदि के शांत होने पर वह वहां निद्रा लेने लगता है, खड़े खड़े ऊंघने लगता है उसकी स्मृति, रति (आनंद), धृति (धैर्य) तथा मति (चित्त की स्वस्थता) लौट आती है वह इस प्रकार शीतल और शांत होकर धीरे धीरे वहां से निकलता हुआ अत्यंत साता-सुख का अनुभव करता है। इसी प्रकार हे गौतम! असत् कल्पना के अनुसार उष्णवेदनीय नरकों से निकल कर कोई नैरयिक जीव इस मनुष्य लोक में जो गुड पकाने की भट्टियां, शराब बनाने की भट्टियां, बकरी की (मिगनिये) की अग्निवाली भट्टियां, लोहा गलाने की भट्टियां, तांबा गलाने की भट्टियां, इसी तरह रांगा, सीसा, चांदी, सोना को गलाने की भट्टियां, कम्भकार के भट्टे की अग्नि. मस की अग्नि, ईंट पकाने के भट्टे की अग्नि, कवेल पकाने के भट्टे की अग्नि, लोहार के भट्टे की अग्नि, इक्षुरस पकाने की चूल की अग्नि, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, बांस की अग्नि आदि जो अग्नियां हैं और अग्नि के स्थान हैं जो तप्त हैं, तपकर अग्नि तुल्य हो गये हैं, पलाश के फूलों की तरह लाल लाल हो गये हैं, जिनमें से हजारों चिनगारियां निकल रही हैं, हजारों ज्वालाएं निकल रही हैं, हजारों अंगारें बिखर रहे हैं जो अत्यंत जाज्वल्यमान हैं, अंदर ही अंदर धू-धू धधकते हैं ऐसे अग्नि स्थानों और अग्नियों को वह नैरयिक जीव देखे और उनमें प्रवेश करे तो वह नरक की उष्णता को शांत करता है, तृषा, क्षुधा और दाह को मिटाता है ऐसा होने से वह वहां नींद लेता है, खड़े खड़े ऊंघता है, स्मृति, रति, धृति और मति को प्राप्त करता है। इस प्रकार वह शीतल और शांत होकर धीरे धीरे वहां से निकलता हुआ अत्यंत साता-सुख का अनुभव करता है। भगवान् के इस प्रकार फरमाने पर गौतम ने पूछा कि हे भगवन्! क्या नरकों की ऐसी उष्ण वेदना है ? हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। उष्ण वेदना वाले नरकों में नैरयिक जीव इससे भी अनिष्टतर वेदना का अनुभव करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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