Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
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नैरयिकों का आहार जे पोग्गला अणिवा णियमा सो तेसि होई आहारो। ... संठाणं तु अणिटुं, णियमा हुंडं तु णायव्वं ॥३॥
- भावार्थ - जो पुद्गल निश्चित रूप में अनिष्ट होते हैं उन्हीं का नैरयिक आहार करते हैं। उनके शरीर का संस्थान (आकार) अति निकृष्ट और हुंड संस्थान वाला होता है। .
विवेचन - जो पुद्गल अनिष्ट होते हैं वे ही नैरयिकों के द्वारा आझर आदि रूप में ग्रहण किये जाते हैं। उनके शरीर का संस्थान हुंडक होता है। "TYPE
नैरयिकों की अशुभ विक्रिया सा असुभा विउव्वणा खलु, णेरइयाणं तु होइ सव्वेसिं। त 399
वेउव्वियं सरीरं, असंघयण हुंड संठाणं॥४॥ "भावार्थ - सब नैरयिकों की उत्तरविक्रिया भी अशुभ ही होती है। उनका वैक्रिय शरीर असंहनन वाला और हुण्ड संस्थान वाला होता है।
विवेचन - सब नैरयिकों की विकुर्वणा अशुभ ही होती है। यद्यपि वे अच्छी विक्रिया बनाने का विचार करते हैं तथापि प्रतिकूल कर्मोदय के कारण वह विकुर्वणा भी अशुभ ही होती है। उनका भवधारणीय और उत्तर वैक्रिय शरीर संहनन रहित होता है क्योंकि उनमें हड्डियां आदि नहीं होती है। उत्तरवैक्रिय शरीर हुंड संस्थान वाला है क्योंकि उनके भवप्रत्यय से ही हुंड संस्थान नामकर्म : का उदय होता है।
अस्साओ उववण्णो, अस्साओ चेव चयइ णिरयभवं। का पो सत्वपुढवीसु जीवो, सव्वेसु ठिइ विसेसेसुं॥५॥
भावार्थ - नैरयिक जीवों का-चाहे वे किसी भी नरक पृथ्वी के हों और चाहे जैसी स्थिति वाले हों-जन्म असाता वाला होता है। उनका संपूर्ण नास्कीय जीवन दुःख में ही बीतता है वहां सुख का लेश मात्र भी नहीं है।
यही विवेचन - रत्नप्रभा आदि सभी नरक पृथ्वियों में कोई जीव चाहे जघन्य स्थिति का हो या उत्कृष्ट स्थिति का हो जन्म से ही असाता का वेदन करता है, उत्पत्ति के पश्चात् भी असाता का अनुभव करता है और पूरा नरक भव असाता में ही व्यतीत कर देता है क्योंकि वहां लेश:मात्र भी सुख नहीं है। यद्यपि नैरयिकों में सदा दुःख ही दुःख है किंतु उसके अपवाद रूप में थोड़ा सुख-आगे की गाथा में इस प्रकार बताया है.
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