Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - मनुष्य उद्देशक - उत्तरदिशा के मनुष्य
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ईशानकोण आग्नेयकोण नैऋत्यकोण वायव्यकोण १. एकोरुक
आभासिक वैषाणिक
नांगोलिक २. हयकर्ण
गजकर्ण गोकर्ण
शष्कुलिकर्ण आदर्शमुख मेण्ढमुख
अयोमुख
गोमुख अश्वमुख हस्तिमुख -- सिंहमुख
व्याघ्रमुख अश्वकर्ण हरिकर्ण अकर्ण
कर्णप्रावरण ६. उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख . विद्युदंत ७. घनदन्त
लष्टदन्त गूढदन्त
शुद्धदन्त दोनों पर्वतों की चारों विदिशाओं में उपरोक्त नाम वाले छप्पन अंतरद्वीप हैं। प्रत्येक अन्तरद्वीप चारों ओर पद्मवर वेदिका से शोभित हैं और पद्मवरवेदिका भी वनखण्ड से घिरी हुई है। इन अंतरद्वीपों में अन्तरद्वीप के नाम वाले ही युगलिक मनुष्य रहते हैं। ये अत्यंत सुंदर होते हैं। इनके तथा इनकी स्त्रियों के वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान होता है। इनकी अवगाहना आठ सौ धनुष की और आयुष्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण होती है। इनके शरीर में ६४ पसलियां होती है। छह माह आयुष्य शेष रहने पर ये युगल संतान को जन्म देते हैं। ७९ दिन संतान का पालन करते हैं। ये अल्प कषायी और सरल स्वभावी तथा संतोषी होते हैं। यहां का आयष्य भोग कर ये देवलोक में उत्पन्न होते हैं।
___ आगम (जीवाभिगम, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि) में चुल्लहिमवंत पर्वत के चारों विदिशा (१. ईशान कोण २: नैऋत्य कोण ३. आग्नेय कोण ४. वायव्य कोण) में सात सात अन्तरद्वीप बताये हैं। संग्रहणी, क्षेत्र समास, आदि ग्रंथों में परस्पर दूरी के साथ जगती से भी ४००-५०० आदि की दूरी बताई है। यदि परस्परं टकराने की बाधा नहीं आती तब तो आगम बाधित नहीं होने के कारण उस बात को भी स्वीकार कर लिया जाता। उस प्रकार स्थापना करने से अन्तिम द्वीप टकराने की स्थिति बन जाने के कारण जगती से ४००-५०० आदि योजन दूरी नहीं मान कर द्वीपों से ही विदिशा में ही मानना आगम संगत ध्यान में आता है।
उपर्युक्त आगम पाठ में आये हुए अन्तरद्वीपों के वर्णन को देखते हुए २८ अन्तरद्वीपों की स्थापनाएं निम्नलिखित प्रकार से होना उचित ध्यान में आता है - .. "एकोरुक आदि सात अन्तरद्वीप-चुल्ल(क्षुद्र)हिमवन्त पर्वत की बड़ी जीवा (अधिकतम लम्बाई) से लवणसमुद्र में उत्तरपूर्व विदिशा (ईशानकोण) में परस्पर (एक दूसरे से) भी विदिशा में आये हुए हैं।'
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