Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
ततीय प्रतिपत्ति - मनुष्य उद्देशक - शेष द्वीपों के मनुष्य
..
३४५
H
___एकोरुक द्वीप आदि की परिधि नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक, हयकर्ण आदि की परिधि बारह सौ पैसठ योजन से कुछ अधिक जाननी चाहिये॥१॥
शेष द्वीपों के मनुष्य - आयंसमुहाईणं पण्णरसेकासीए जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं, एवं एएणं कमेणं उवउज्जिऊण णेयव्वा चत्तारि चत्तारि एगपमाणा, णाणत्तं ओगाहे, विक्खंभे परिक्खेवे पढमबीयतइयचउक्काणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेवो भणिओ, चउत्थचउक्के छजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं अट्ठारसत्ताणउए जोयणसए परिक्खेवेणं। पंचमचउक्के सत्त जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं। छट्ठ चउक्के अट्ठजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पणवीसं गुणतीसजोयणसए परिक्खेवेणं। सत्तमचउक्के णवयोजणसयाइं आयामविक्खंभेणं दो जोयणसहस्साइं अट्ठ पणयाले जोयणसए परिक्खेवेणं। जस्स य जो विक्खंभो उग्गाहो तस्स तत्तिओ चेव। पढमबीयाण परिरओ ऊणो सेसाण अहिओ उ॥१॥
सेसा जहा एगूरुयदीवस्स जाव सुद्धदंतदीवे देवलोगपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। .
भावार्थ - आदर्शमुख आदि की परिधि पन्द्रह सौ इक्यासी (१५८१) योजन से कुछ अधिक है। इस प्रकार इस क्रम से चार चार द्वीप एक समान प्रमाण वाले हैं। अवगाहन, विष्कंभ और परिधि में अन्तर समझना चाहिये। पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे का अवगाहन, विष्कंभ और परिधि का कथन कर दिया गया है। चौथे चतुष्क में छह सौ योजन का आयाम विष्कंभ (लम्बाई चौड़ाई) और १८९७ योजन से कुछ अधिक परिधि है। पांचवें चतुष्क में सात सौ योजन की लम्बाई चौड़ाई और २२१३ योजन से कुछ अधिक की परिधि है। छठे चतुष्क में आठ सौ योजन की लम्बाई चौड़ाई और २५२९ योजन से कुछ अधिक की परिधि है। सातवें चतुष्क में नौ सो योजन की लम्बाई चौड़ाई और २८४५ योजन से कुछ अधिक की परिधि है। जिसकी जो लम्बाई चौड़ाई (आयाम विष्कम्भ) है वही उसका अवगाहन है। प्रथम चतुष्क से द्वितीय चतुष्क की परिधि ३१६ योजन अधिक, इसी क्रम से ३१६-३१६ योजन की परिधि बढ़ाना चाहिये और विशेषाधिक पद सबके साथ कह देना चाहिये।
हे आयुष्मन् श्रमण! शेष सारा वर्णन एकोरुक की तरह शुद्धदंत द्वीप तक समझ लेना चाहिये यावत् वे मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org