Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 327
________________ ३१० जीवाजीवाभिगम सूत्र ऊपर बना हुआ घर), सुहारुहणे - सुखारोहण-सुख से चढा जा सके, सुहोत्ताराए - सुखोत्तारेण-सुख से उतरा जा सके, सुहणिक्खमणपवेसाए - सुख पूर्वक निष्क्रमण और प्रवेश वाले, ददरसोपाणपंतिकलियाए - दर्दर सोपान पंक्ति कलितेन-जिनकी सोपान पंक्तियां समीप समीप है, पइरिक्काए - परतिरिक्तेन-विशाल। . भावार्थ - हे आयुष्मन् श्रमण! एकोरुक द्वीप में स्थान स्थान पर बहुत से गेहाकार नाम के वृक्ष हैं जैसे - प्राकार, अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर, प्रासाद, आकाशतल, मण्डप, एकशालक-एक खंड वाले, द्विशालक, त्रिशालक, चौकोन, चौशालक-चार खण्ड वाले मकान, गर्भगृह, मोहनगृह, वलभीगृह, चित्रशालक गृह, भोजनालय, गोल, तिकोने, चौरस, नंदियावर्त आकार के गृह, छत रहित शुभ्र आंगन वाला घर, हर्म्य-शिखर रहित हवेली अथवा धवल गृह, अर्धगृह, मागधगृह, विभ्रमगृह, शैलार्द्धगृहपहाड़ के अर्द्धभाग के आकार के गृह, शैलगृह, कूटाकार (पर्वत के शिखर के आकार के) गृह, सुविधिकोष्टक गृह, अनेक कोठों वाला घर, शरण गृह, शयन गृह, दुकान, छज्जे वाले घर, जाली वाले घर, नियूंह कमरों और द्वार वाले गृह और चंद्रशालिका-शिरोगृह आदि अनेक प्रकार के भवन होते हैं उसी प्रकार वे गेहाकारा वृक्ष भी विविध प्रकार के बहुत से विस्रसा (स्वाभाविक) परिणाम से परिणत . भवनों और गृहों से युक्त हैं। उन भवनों में सुख पूर्वक चढा जा सकता है सुखपूर्वक उतरा जा सकता है, उनमें सुखपूर्वक प्रवेश और निष्क्रमण हो सकता है, उन भवनों के चढाव के सोपान समीप समीप हैं विशाल होने से उनमें सुख रूप गमनागमन होता है और वे भवन मन के अनुकूल होते हैं। ऐसे विविध : प्रकार के भवनों से युक्त गेहाकारा वृक्ष हैं। वे वृक्ष कुशकास से रहित मूल वाले हैं और वे अतीव अतीव शोभा से शोभायमान है। १०. अनग्ना नामक वृक्ष एगूरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ बहवे अणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से आईणग-खोमतणुय-कंबल-दुगुल्लकोसेज्जकालमिगपट्ट-चीणंसुय-अणहय णिउण णिप्पावियणिद्धगज्जिय पंचवण्णा चरणातवारवणिगय-थुणाभरणचित्तसहिणगकल्लाणग भिंगि-मेहणीलकज्जल-बहुवण्ण-रत्तपीय-णीलसुक्किल-मक्खय मिगलोम-हेमप्फरुण्णग-अवसरत्तंगसिंधु-ओसभदामि-लवंग-कलिंगणेलिणतंतुमय भत्तिचित्ता वत्थविही बहुप्पगारा हवेज्ज वरपट्टणुग्गया वण्णरागक्रलिया तहेव ते अणियणा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए वत्थविहीए उववेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति॥१०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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