Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - प्रथम तिर्यंचयोनिक उद्देशक - विमानों की महत्ता
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भी कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि यहां वैसे सात अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम (पद न्यास) कहना चाहिये। शेष सारा वर्णन वही है।। ' अस्थि णं भंते! विमाणाई विजयाइं वेजयंताई जयंताई अपराजियाइं? हंता अत्थि। ते णं भंते! विमाणा के महालया?
गोयमा! जावइए णं सूरिए उदेइ० एवइयाइं णव ओवासंतराइं सेसं तं चेव, णो चेवणं ते विमाणे वीईवएज्जा एमहालया णं विमाणा पण्णत्ता समणाउसो॥९९॥
॥पढमो तिरिक्खजोणिय उद्देसो समत्तो॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के विमान हैं ? .. उत्तर - हाँ, गौतम! विजय आदि विमान हैं। प्रश्न - हे भगवन्! वे विमान कितने बड़े हैं ?
उत्तर - हे गौतम! जैसी वक्तव्यता स्वस्तिक आदि विमानों की कही है वैसी ही यहां कह देनी चाहिये। विशेषता यह है कि यहां नौ अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम (पद न्यास) कहना चाहिये। इस तीव्र और दिव्य देव गति से वह देव एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो वह किन्ही विमानों के पार पहुंच सकता है और किन्ही विमानों के पार नहीं पहुंच सकता है। हे आयुष्मन् श्रमण! वे विमान इतने बड़े कहे गये हैं। - उपर्युक्त स्वस्तिक आदि विमान वैमानिक जाति के देवों के विमान समझना चाहिये। विजय आदि चार विमान तो चार अनुत्तर विमान के समझना चाहिये। .. शेष नामों वाले विमान किस देवलोक के हैं, इसका खुलासा नहीं मिलता है। ये सभी विमान पृथ्वीकाय के होने से इन विमानों की पृच्छाएं तिर्यंच उद्देशक में बताई गई है।
।। प्रथम तिर्यंचयोनिक उद्देशक समाप्त॥
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