Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - मनुष्य उद्देशक - दस वृक्षों का वर्णन - भूतांगा नामक वृक्ष
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भावार्थ - हे आयुष्मन् श्रमण! उस एकोरुक द्वीप में स्थान स्थान पर मत्तांगा नामक द्रुमगण हैं। जैसे चन्द्रप्रभा, मणिशलाका श्रेष्ठ सीधु, प्रवर वारुणी, जातिवंत फल पत्र पुष्प सुगंधित द्रव्यों से निकाले हुए सारभूत रस और नाना द्रव्यों से युक्त एवं उचित काल में संयोजित करके बनाये हुए आसव, मधु, मेरक, रिष्टाभ, दुग्ध तुल्य स्वाद वाली प्रसन्न, मेल्लक, शतायु: खजूर और मृद्विका (दाख) के रस, कपिश (धूम) वर्ण का गुड़ का रस, सुपक्व क्षोद (काष्ठादि चूर्णों का) रस, वरसुरा आदि विविध मद्य प्रकारों में जैसे वर्ण, रस, गंध और स्पर्श तथा बलवीर्य पैदा करने वाले परिणाम होते हैं वैसे ही मत्तांगा वृक्ष नाना प्रकार के विविध स्वाभाविक परिणाम वाली मद्य विधि से युक्त और फलों से परिपूर्ण हैं एवं विकसित हैं। वे कुश (दर्भ) कांस से रहित मूल वाले यावत् शोभा से अतीव अतीव शोभायमान होते हैं।
... २. भूतांगा नामक वृक्ष एगोरुयदीवे णंदीवे तत्थ तत्थ बहवे भिंगगया णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से बारगघडकरगकलसकक्करिपायंकंचणिउदंकवद्धणिसुप(इट्टक) विदुरपारीचसगभिंगारकरोडिसरग थरग पत्तीथालणत्थगववलिय अवपदगवारय विचित्तवट्टगमणिवट्टगसुत्तिचारुपिणया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भायणविहीए बहुप्पगारा तहेव ते भिंगगयावि दुमगणा अणेग बहुविविहवीससाए परिणयाए भायणविहीए उववेया फलेहिं पुण्णाविव विसटुंति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति २॥
कठिन शब्दार्थ - भिंगगया - भृताङ्गा-पात्र आदि देने वाले।
भावार्थ - हे आयुष्मन् श्रमण! उस एकोरुक द्वीप में स्थान स्थान पर बहुत से भृत्तांगा नाम के द्रुमगण हैं। जैसे वारक (मंगलघट), घट, करक, कलश, कर्करी (गगरी) पादकंचनिका (पांव धोने की सोने की पात्री) उदंक (उलचना) वद्धणि (लोटा) सुप्रतिष्ठक (फूल रखने का पात्र) पारी (घी तेल का पात्र), चषक (पान पात्र-गिलास आदि) भिंगारक (झारी), करोटि (कटोरा), शरक, थरक (पात्र विशेष) पात्री, थाली, जल भरने का घड़ा, विचित्र वर्तक (भोजनकाल में घृतादि रखने के पात्र विशेष) मणियों के वर्तक, शुक्ति (चन्दन आदि घीस कर रखने का पात्र) आदि बर्तन जो सोने, मणि रत्नों के बने होते हैं तथा जिन पर विचित्र प्रकार की चित्रकारी की हुई होती है वैसे ही ये भृत्तांगा वृक्ष भाजनविधि में नाना प्रकार के विस्रसा परिणत (स्वाभाविक परिणाम वाले) भाज़नों से युक्त होते हैं, फलों से परिपूर्ण और विकसित होते हैं। ये कुश-कांस से रहित मूल वाले यावत् शोभा से अतीव अतीव शोभायमान होते हैं ॥२॥
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