Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 315
________________ २९८ जीवाजीवाभिगम सूत्र HHHHHHA कठिन शब्दार्थ - बहुसमरमणिज्जे - बहुत समतल रमणीय, आलिंगपुक्खरेइ - आलिंगपुष्करइति आलिंग अर्थात् मुरज (मृदंग विशेष) और पुष्कर का अर्थ है - चर्मपुटक, दुमगणा - द्रुम गणवृक्ष समूह, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला - कुश विकुश विशुद्ध वृक्षमूला-कुश (दर्भ) और कांस से रहित मूल वाले, अच्छण्णपडिच्छण्णा - आच्छन्न प्रतिच्छन्ना-लदे हुए, सिरीए - श्रिया-शोभा से, उवसोहेमाणा- शोभायमान। भावार्थ - एकोरुक द्वीप का भीतरी भाग बहुत समतल और रमणीय कहा गया है। जैसे मुरज का चर्मपुट समतल होता है वैसा समतल वहां का भूमिभाग है - आदि। इसी प्रकार शय्या की मृदुता भी . कह देनी चाहिये यावत् पृथ्वीशिलापट्टक पर बहुत से एकोरुक द्वीप के मनुष्य और मनुष्य स्त्रियां उठते हैं, बैठते हैं यावत् शुभकर्मों के फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं। ... - हे आयुष्मन् श्रमण! एकोरुक द्वीप में यहां वहां बहुत से उद्दालक, कोद्दालक, कृतमाल, नतमाल, नृत्यमाल, श्रृंगमाल, शंखमाल, दंतमाल और शैलमाल नामक वृक्ष कहे गये हैं। वे वृक्ष दर्भ और कांस से रहित मूल वाले हैं। वे प्रशस्त मूल वाले, कंद वाले यावत् प्रशस्त बीज वाले हैं और पत्रों तथा फूलों से आच्छन्न प्रतिच्छन्न हैं अर्थात् पत्रों और फूलों से लदे हुए हैं तथा शोभा से अतीव अतीव शोभायमान हैं। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में एकोरुक द्वीप की भूमि रचना एवं वनखंड के वृक्षों का वर्णन किया गया है। एकोरुक.द्वीप के भूमि भाग की समतलता और रमणीयता बताने के लिए मूल पाठ में प्रयुक्त 'जाव' शब्द से निम्न पाठ का ग्रहण किया गया है - "मुइंगपुक्खरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ वा चंदमंडलेइ वा सूरमंडलेइ वा आयंसमंडलेइ वा उरब्भचम्मेइ वा उसभचम्मेइ वा वराहचम्मेइ वा सीहचम्मेइ वा वग्घचम्मेइ वा विगचम्मेइ वा दीवियचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवड पच्चावड सेणिपसेणि सोत्थिय सोवत्थिय पूसमाणवद्धमाण मच्छंडग मकरंडग जारमार फुल्ला वलि पउमपत्तसागरतरंगवासंतिलय पउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाए सप्पभेहिं सस्सिरीएहिं समरीइहिं सउज्जोएहिं णाणाविह पंचवण्णेहिं तणेहि य मणिहि य उवसोहिए" - अर्थात् जैसे मृदंग का मुख चिकना और समतल होता है, जैसे पानी से लबालब भरे हुए तालाब का पानी समतल होता है जैसे हथेली का तल, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, दर्पण का तल आदि समतल होते हैं वैसे ही यहां का भूमिभाग समतल है। जैसे भैड, बैल, सूअर, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेडिया) और चीता इनके चर्म को बड़ी बड़ी कीलों द्वारा खींच कर अति समतल कर दिया जाता है वैसे ही वहां का भूमिभाग अति समतल और रमणीय है। वह भूमि आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमान, वर्द्धमान, मत्स्याण्ड, मकराण्ड, जार मार पुष्पावलि, पद्म पत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि नाना प्रकार के मांगलिक रूपों की रचना से चित्रित तथा सुंदर दृश्य वाले, सुंदर कांति, सुंदर शोभा वाले, चमकती हुई उज्ज्वल किरणों वाले और प्रकाश वाले नाना प्रकार के पांच वर्णों वाले तृणों और मणियों से उपशोभित होती रहती है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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