Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१९२
जीवाजीवाभिगम सूत्र
३. वैडूर्यकाण्ड ४. लोहिताक्ष काण्ड ५. मसारगल्लकाण्ड ६. हंसगर्भ काण्ड ७. पुलक काण्ड ८. सौगंधिक काण्ड ९. ज्योतिरस काण्ड १०. अंजनकाण्ड ११. अंजनपुलक काण्ड १२. रजतकाण्ड १३. जातरूप काण्ड १४. अङ्क काण्ड १५. स्फटिक काण्ड १६. रिष्ट रत्न काण्ड। सोलह रत्नों के नाम के अनुसार रत्नप्रभा के खरकाण्ड के सोलह विभाग हैं। जिस काण्ड में जिस वस्तु की प्रधानता है उसी नाम से काण्ड का भी वही नाम है। प्रत्येक काण्ड की मोटाई एक हजार योजन है।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभापुढवीए रयणकंडे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! एगागारे पण्णत्ते। एवं जाव रिटे। इमीसे णं भंते! रयणप्पभापुढवीए पंकबहुले कंडे कइविहे पण्णते? ..
गोयमा! एगागारे पण्णत्ते। एवं आवबहुले कंडे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! एगागारे पण्णत्ते।
शर्कराप्रभा आदि के भेद सक्करप्पभाए णं भंते! पुढवीं कइविहा पण्णत्ता? गोयमा! एगागारा पण्णत्ता। एवं जाव अहेसत्तमा॥६९॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का रत्नकाण्ड कितने प्रकार का है ? उत्तर - हे गौतम! एक ही प्रकार का है। इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक एक एक भेद कहना चाहिये। प्रश्न - हे भगवन्! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का पंकबहुल काण्ड कितने प्रकार का है? . उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी का पंकबहुल काण्ड एक ही प्रकार का कहा गया है। प्रश्न - इसी तरह अपबहुल काण्ड कितने प्रकार का कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! अपबहुल काण्ड एकाकार है। प्रश्न - हे भगवन्! शर्कराप्रभा पृथ्वी कितने प्रकार की है?
उत्तर - हे गौतम! शर्कराप्रभा पृथ्वी एक ही प्रकार की है। इसी प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी तक एकाकार कहना चाहिये।
विवेचन - रत्नकाण्ड से लगाकर रिष्टकाण्ड तक सब एक ही प्रकार के हैं इनके विभाग नहीं हैं। दूसरा काण्ड पंकबहुल है इसमें कीचड़ की अधिकता है और इसका विभाग न होने से यह एक प्रकार का ही है। यह दूसरा काण्ड ८४ हजार योजन की मोटाई वाला है। तीसरे अपबहुल काण्ड में जल की प्रचुरता है और इसका भी कोई विभाग नहीं है, एक ही प्रकार का है। यह ८० हजार योजन की मोटाई वाला है। इस प्रकार रत्नप्रभा के तीनों काण्डों को मिलाने से रत्नप्रभा की कुल मोटाई १६+८४+८०- एक लाख अस्सी हजार योजन की हो जाती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org