Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२००
जीवाजीवाभिगम सूत्र
.. प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पंकबहुल काण्ड में जो चौरासी हजार योजन की मोटाई वाला और बुद्धि द्वारा प्रतर आदि रूप में विभक्त है उसमें पूर्वोक्त विशेषणों वाले द्रव्य हैं क्या?
___ उत्तर - हाँ, गौतम! हैं। इसी प्रकार अस्सी हजार योजन की मोटाई वाले अपबहुल काण्ड में पूर्वोक्त विशेषण वाले द्रव्यादि हैं।
प्रश्न - हे भगवन्! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बीस हजार योजन की मोटाई वाले और बुद्धि से विभक्त घनोदधि में पूर्वोक्त विशेषण वाले द्रव्य हैं ? - - उत्तर- हाँ, गौतम! हैं। इसी प्रकार.असंख्यात हजार योजन की मोर्टाई वाले घनवात और तनुवात में तथा आकाश में भी पूर्व विशिष्ट द्रव्यादि हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में रत्नप्रभा पृथ्वी में द्रव्यों की सत्ता का कथन किया गया है। रत्नप्रभा पृथ्वी के खरकाण्ड, रत्नकांड से लेकर रिष्ट काण्ड तक, पंकबहुल काण्ड, अपबहुल काण्ड, घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश में सब जगह वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा विविध पर्यायों से परिणत द्रव्यों का सद्भाव बताया गया है। ये द्रव्य एक दूसरे से बंधे हुए, एक दूसरे को स्पर्श किये हुए, एक दूसरे में अवगाढ़ (जहां एक द्रव्य रहा है वहीं देश या सर्व से दूसरे भी द्रव्य रहे हुए हैं), स्नेह गुण के कारण परस्पर मिले हुए और क्षीर नीर की तरह एक दूसरे से प्रगाढ रूप से मिले हुए रहते हैं।
सक्करप्पभाए णं भंते! पुढवीए बत्तीसुत्तर जोयणसयसहस्स बाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणीए अत्थिदव्वाइं वण्णओ जाव घडत्ताए चिटुंति? ___हंता अस्थि, एवं घणोदहिस्स वीसजोयणसहस्स बाहल्लस्स घणवायस्स असंखेज्ज जोयणसहस्स बाहल्लस्स एवं जाव ओवासंतरस्स, जहा सक्करप्पभाए एवं जाव अहेसत्तमाए॥७३॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! एक लाख बत्तीस हजार योजन मोटाई वाली और बुद्धि द्वारा प्रतर आदि रूप में विभक्त शर्कराप्रभा पृथ्वी में पूर्व विशेषणों से युक्त द्रव्य यावत् परस्पर सम्बद्ध हैं क्या?
उत्तर - हाँ गौतम! हैं। इसी तरह बीस हजार योजन की मोटाई वाले घनोदधि, असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले घनवात और आकाश के विषय में भी समझना चाहिये। शर्कराप्रभा की तरह ही यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिये।
विवेचन - शर्कराप्रभा पृथ्वी में, उसके घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश में सब जगह वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा विविध पर्यायों से परिणत द्रव्यों का सद्भाव बताया गया है। शर्कराप्रभा पृथ्वी की तरह सातों पृथ्वियों की वक्तव्यता समझनी चाहिये।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org