Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - प्रथम नैरयिक उद्देशक - सर्व जीव पुद्गलों का उत्पाद
२०९
सातों ही नरकों के घनवात, तनुवात एवं आकाशान्तर असंख्यात-असंख्यात योजन के हैं तथा ये असंख्यात योजन परस्पर तुल्य होने की संभावना है किन्तु घनवात आदि तीनों एक ही नरक के हों तो उनमें परस्पर तुल्यता नहीं हैं क्योंकि भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक १० के अनुसार रत्नप्रभा आदि सात ही नरकों के घनोदधि, घनवात, तनुवात ने तो धर्मास्तिकाय के एक असंख्यातवें भाग का स्पर्श किया है तथा आकाशान्तर में एक संख्यातवें भाग का स्पर्श किया है।
आगमकार घनोदधि आदि तथा तीनों वलयों के परस्पर स्पृष्ट होने पर भी अलग-अलग प्रश्नोत्तर करके अलग-अलग संस्थानों से बताना चाहते हैं।
सर्व जीव पुद्गलों का उत्पाद इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुब्बा? सव्वजीवा उववण्णा ?
गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुव्वा णो चेवणं सव्वजीवा उववण्णा। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए।
कठिन शब्दार्थ - उववण्णपुव्वा - पूर्व में उत्पन्न .. भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी में सब जीव पहले काल क्रम से उत्पन्न हुए हैं तथा एक साथ उत्पन्न हुए हैं?
उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में सब जीव काल क्रम से पहले उत्पन्न हुए हैं किंतु सब जीव एक साथ रत्नप्रभा में उत्पन्न नहीं हुए हैं। इसी प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी तक कह देना चाहिये। . विवेचन - इस रत्नप्रभा पृथ्वी आदि में सब जीव कालक्रम से - अलग अलग समय में पहले उत्पन्न हुए हैं। यहां सब जीवों से व्यवहार राशि वाले जीव ही समझने चाहिये, अव्यवहार राशि वाले नहीं। संसार अनादिकालीन होने से अलग अलग समय में सब जीव रत्नप्रभा आदि में उत्पन्न हुए हैं किंतु सब जीव एक साथ रत्नप्रभा आदि में उत्पन्न नहीं हुए। यदि सब जीव एक साथ रत्नप्रभा आदि में उत्पन्न हो जाएं तो देव, तिर्यच, मनुष्य आदि का अभाव हो जावेगा किंतु ऐसा कभी होता नहीं। जगत् का स्वभाव ही ऐसा है। तथाविध जगत् स्वभाव से चारों गतियां शाश्वत है। अतः एक साथ सब जीव रत्नप्रभा आदि में उत्पन्न नहीं हो सकते।
इमाणं भंते! रयणप्पभा पुढवी सव्वजीवहिं विजढपुव्वा सव्व जीवेहिं विजढा?
गोयमा! इमा णं रयणप्पभा पुढवी सव्वजीवेहिं विजढपुव्वा णो चेव णं सव्वजीव विजढा, एवं जाव अहेसत्तमा।
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