Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय नैरयिक उद्देशक - नैरयिकों में योग व उपयोग २३९
[ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति ?
गोयमा ! जहणेणं अद्भुट्ठगाउयाइं उक्कोसेणं चत्तारि गाऊयाइं । सकरप्पभाए पुढवीए रइया जहणेणं तिण्णि गाउयाइं उक्कोसेणं अधुट्ठाइं, एवं अद्धद्धं गाउयं परिहायइ जाव अहेसत्तमाए जहण्णेणं अद्धगाउयं उक्कोसेणं गाऊयं । ]
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक क्या मनयोग वाले हैं, वचनयोग वाले हैं या काययोग वाले हैं ?
उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक तीनों योग वाले (मनयोग वाले, वचनयोग वाले और काययोग वाले हैं। अधः सप्तम पृथ्वी तक ऐसा ही कह देना चाहिये ।
प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक क्या साकारोपयोग वाले हैं या अनाकारोपयोग वाले हैं ?
उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक साकारोपयोग वाले भी हैं और अनाकारोपयोग वाले भी हैं। इसी प्रकार अधः सप्तम पृथ्वी तक कह देना चाहिये ।
[ हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक अवधि से कितना क्षेत्र जानते देखते हैं ?
हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक अवधि से जघन्य साढे तीन कोस उत्कृष्ट से चार कोस क्षेत्र को जानते देखते हैं। शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक जघन्य तीन कोस, उत्कृष्ट से साढे तीन कोस क्षेत्र को जानते देखते हैं। इस प्रकार आधा-आधा कोस घटा कर कह देना चाहिये यावत् अधः सप्तम पृथ्वी के नैरयिक जघन्य आधा कोस और उत्कृष्ट से एक कोस क्षेत्र जानते देखते हैं ।]
विवेचन - नैरयिक जीवों में मनयोग, वचनयोग और काययोग-तीनों योग होते हैं। नैरयिक जीव साकारोपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग और अनाकारोपयोग अर्थात् दर्शनोपयोग दोनों तरह के उपयोग वाले होते हैं।
नैरयिक जीवों का अवधि का क्षेत्र इस प्रकार समझना चाहिये - पहली नरक में चार गव्यूति (कोस) तक उत्कृष्ट अवधि ( अवधिज्ञान या विभंगज्ञान) होता है। दूसरी में साढे तीन गव्यूति । तीसरी में तीन गव्यूति । चौथी में अढाई गव्यूति । पांचवीं में दो गव्यूति । छठी में डेढ गव्यूति और सातवीं में एक गव्यूति । ऊपर लिखे परिमाण में से आधी गव्यूति कम कर देने पर हर एक नरक में जघन्य अवधि का परिमाण निकल आता है अर्थात् पहली नरक में साढे तीन गव्यूति अवधि ( अवधिज्ञान अथवा विभंगज्ञान) होता है। दूसरी में तीन, तीसरी में ढाई, चौथी में दो, पांचवीं में डेढ, छठी में एक और सातवीं में आधी गव्यूति जघन्य अवधि होता है।
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