Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
नैरों में ज्ञानी अज्ञानी
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या किं णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! णाणी व अण्णाणी वि, जे णाणी ते णियमा तिणाणी, तं जहा आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी, जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दुअण्णाणी अत्थेगइया तिअण्णाणी, जे दुअण्णाणी ते णियमा मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य, जे तिअण्णाणी ते णियमा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणी वि, सेसा णं णाणी व अण्णाणी वि तिणि जाव अहेसत्तमाए ॥
२३८
भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक ज्ञानी हैं या अज्ञानी ?
उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा के नैरयिक ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं - आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी । जो अज्ञानी हैं उनमें कोई दो अज्ञान वाले हैं और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे नियम से मति अज्ञानी और श्रुतअज्ञानी हैं। जो तीन अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। शेष नरकों के नैरयिक ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे तीन अज्ञान वाले हैं यावत् सातवीं नरक पृथ्वी तक समझना चाहिये ।
विवेचन - रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक जीव ज्ञानी तथा अज्ञानी दोनों तरह के होते हैं। जो सम्यग्दृष्टि हैं वे ज्ञानी हैं और जो मिथ्यादृष्टि हैं वे अज्ञानी हैं। ज्ञानी नैरयिक जीवों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, ये तीन ज्ञान नियम से पाये जाते हैं। अज्ञानी नैरयिकों में दो अज्ञान भी होते हैं और तीन अज्ञान भी होते हैं। जो जीव असंज्ञी पंचेन्द्रिय से आते हैं वे अपर्याप्त अवस्था में दो अज्ञान (मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान) वाले होते हैं उनमें विभंगज्ञान नहीं होता । पर्याप्त अवस्था में तथा दूसरे मिथ्यादृष्टि जीवों को विभंगज्ञान भी होता है । इस अपेक्षा से तीन अज्ञान समझने चाहिये। दूसरी नरक से लेकर सातवीं नरक तक सम्यग्दृष्टि नैरयिकों में तीन ज्ञान और मिथ्यादृष्टि नैरयिक जीवों में तीन अज्ञान होते हैं। क्योंकि शर्कराप्रभा आदि आगे की नरकों में संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही उत्पन्न होते हैं।
नैरयिकों में योग व उपयोग
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या किं मणजोगी वड्जोगी कायजोगी ? गोमा ! तिणि वि, एवं जाव असत्तमाए ॥
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ? गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि, एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए ।
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