Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
इमाणं भंते! रयणप्पभा पुढवी कालओ केवच्चिरं होइ ?
गोयमा! ण कयाइ ण आसि ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवइ य भविस्सइ य धुवा, णियया, सासया, अक्खया, अव्वया, अवट्ठिया णिच्चा । एवं चेव असत्तमा ॥ ७८ ॥
कठिन शब्दार्थ - धुवा - ध्रुव, णियया नियत, सासया अव्वया - अव्यय, अवट्टिया अवस्थित, णिच्चा - नित्य ।
२१२
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शाश्वत अक्खया
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भावार्थ- प्रश्न- हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी काल से कितने समय तक रहने वाली है ? उत्तर - हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथ्वी कभी नहीं थी ऐसा नहीं, कभी नहीं हैं ऐसा भी नहीं और कभी नहीं रहेगी, ऐसा भी नहीं। यह भूतकाल में थी, वर्तमान है और भविष्य में रहेगी। यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है । इसी प्रकार अधः सप्तम पृथ्वी तक समझ लेना चाहिये ।
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अक्षय,
विवेचन - यह स्नप्रभा पृथ्वी अनादिकाल से सदा से थी, सदा है और सदा रहेगी। यह अनादि अनन्त है। त्रिकाल भावी होने से यह ध्रुव है, नियत स्वरूप वाली होने से धर्मास्तिकाय की तरह नियत है, नियत होने से शाश्वत है क्योंकि इसका प्रलय (नाश) नहीं होता। शाश्वत होने से अक्षय है और अक्षय होने से अव्यय है और अव्यय होने से स्व प्रमाण में अवस्थित है। अतएव सदा रहने के कारण नित्य है। अथवा ध्रुव आदि शब्दों को एकार्थक भी समझा जा सकता है। शाश्वतता पर विशेष भार देने हेतु विविध एकार्थक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों की शाश्वतता समझनी चाहिये।
पृथ्वियों का अन्तर
[ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ?
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गोयमा! असि उत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ?
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ खरस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ?
गोमा! सोलस जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ रयणस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । ]
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