Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - प्रथम नैरयिक उद्देशक - सातों पृथ्वियों की अलोक से दूरी
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कठिन शब्दार्थ - चरिमंताओ - चरमान्त-अंतिम भाग से, अबाहाए - अबाधा-अपान्तराल रूप लोयंते - लोकान्त-लोक का अन्त।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व दिशा के चरमांत से कितने अपान्तराल (दूरी) के बाद लोकान्त कहा गया है ? .
उत्तर - हे गौतम! बारह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। इसी प्रकार दक्षिण दिशा के, पश्चिम दिशा के और उत्तर दिशा के चरमांत से बारह योजन अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। : प्रश्न - हे भगवन्! शर्कराप्रभा पृथ्वी के पूर्व दिशा के चरमांत से कितने अपान्तराल के बाद । लोकान्त कहा गया है? ; उत्तर - हे गौतम! तीन भाग कम तेरह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। इसी प्रकार चारों दिशाओं के विषय में कह देना चाहिये।
प्रश्न - हे भगवन्! बालुकाप्रभा पृथ्वी के पूर्व दिशा के चरमांत से कितने अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है?
. उत्तर - हे गौतम! तीन भाग सहित तेरह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। इस प्रकार चारों दिशाओं को लेकर कहना चाहिये। इसी प्रकार सब नरक पृथ्वियों की चारों दिशाओं को लेकर प्रश्न करना चाहिये।
पंकप्रभा पृथ्वी में चौदह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त हैं। पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी में तीन . भाग कम पन्द्रह योजन के अंपान्तराल के बाद लोकान्त है। छठी तमप्रभा पृथ्वी में तीन भाग सहित पन्द्रह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त है। सातवीं पृथ्वी में सोलह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। इसी प्रकार उत्तर दिशा के चरमान्त तक समझना चाहिये।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नरक पृथ्वियों के चरमान्त से अलोक की दूरी बताई गई है। रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व दिशा के चरमान्त से अलोक बारह योजन की दूरी पर है इसका तात्पर्य यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व दिशा वाले चरमान्त और अलौक के बीच में बारह योजन का अपान्तराल है। पूर्व दिशा की तरह रत्नप्रभा पृथ्वी के शेष तीन दिशाओं और चारों विदिशाओं के चरमांत से भी अलोक बारह योजन दूर है।
शर्कराप्रभा पृथ्वी की सब दिशा विदिशाओं में पूर्व आदि के चरम पर्यंत भाग से लोकान्त का अपान्तराल तीन भाग न्यून तेरह योजन का अर्थात् एक योजन के तीन भाग किये जावे, उन तीन भागों में जो तीसरा भाग है उसे कम करके तेरह योजन का यानी बारह योजन के ऊपर योजन के दो भाग बढ़ कर शर्करा पृथ्वी में लोकान्त का अपान्तराल योजन के दो भाग सहित बारह योजन (१२२) योजन का
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