Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
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हड्डी होती है, न शिरा और न स्नायु (छोटी नसें) होती है। जो पुद्गल इष्ट कांत यावत् मन को आह्लादकारी होते हैं उनके शरीर रूप में परिणत हो जाते हैं।
प्रश्न - हे भगवन्! देवों के संस्थान कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौतम! देवों के संस्थान दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। उनमें जो भवधारणीय है वह समचतुरस्र संस्थान है और जो उत्तरवैक्रिय है वह नाना प्रकार का है। देवों में चार कषाय, चार संज्ञा, छह लेश्या, पांच इन्द्रिय और पांच समुद्घात होते हैं वे संज्ञी भी हैं और असंज्ञी भी हैं। देव स्त्रीवेद वाले और पुरुषवेद वाले हैं किंतु नपुंसकवेद वाले नहीं हैं। उनमें पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ, तीन दृष्टियाँ और तीन दर्शन होते हैं। देव ज्ञानी भी होते हैं
और अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे. भजना से तीन अज्ञान वाले हैं। उनमें साकार और अनाकार दोनों उपयोग होते हैं। तीनों योग होते हैं। वे नियम से . छहों दिशाओं के पुद्गलों को आहार रूप में ग्रहण करते हैं। प्रायः करके हालिद्र (पीले) और श्वेत वर्ण के यावत् शुभ गंध, शुभ रस, शुभ स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं। वे तिर्यंचों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। वे. दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं। वे यहां से मर कर नरक में उत्पन्न नहीं होते, यथासंभव तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों में उत्पन्न नहीं होते। इसलिये वे दो गति वाले दो आगति वाले प्रत्येक शरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। यह देवों का वर्णन हुआ। यह पंचेन्द्रियों का वर्णन हुआ। इसी के साथ उदार त्रसों का निरूपण पूरा हुआ।
विवेचन - देवों के शरीर आदि २३ द्वारों का निरूपण इस प्रकार हैं - १.शरीर द्वार - देवों में शरीर पावे तीन - वैक्रिय, तैजस और कार्मण।
२.अवगाहना द्वार - देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग . और उत्कृष्ट सात हाथ। उत्तरवैक्रिय करे तो जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग उत्कृष्ट एक लाख योजन।
३. संहनन द्वार, - देवों के शरीर में न अस्थि है, न शिरा है और न स्नायु है अत: उनमें संहनन नहीं होता किंतु जो पुद्गल शुभ होते हैं वे शरीर रूप में परिणत हो जाते हैं।
४. संस्थान द्वार - देवों के भवधारणीय शरीर में एक समचौरस संस्थान और उत्तरवैक्रिय में विविध प्रकार का संस्थान होता है।
५. कषाय द्वार - देवों में चारों कषाय होती हैं। ... ६.संज्ञा द्वार - चारों संज्ञाएं होती हैं।
७. लेश्या द्वार - देवों में छहों लेश्याएं इस प्रकार होती है - भवनपति और वाणव्यंतर देवों में पहली चार लेश्याएं होती हैं। ज्योतिषी और पहले दूसरे देवलोक में तेजो लेश्या। तीसरे, चौथे, पांचवें
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