Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
असंख्यातवां भाग कम और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम की कही गई है। दो हजार वर्ष का अबाधा काल है। अबाधाकाल से हीन स्थिति का कर्मनिषेक है।
विवेचन - नपुंसकवेद की बंधस्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम. के - (दो सातिया भाग) भाग तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। जघन्य स्थिति इस प्रकार समझनी चाहिये-जिस प्रकृति की जो उत्कृष्ट स्थिति होती है उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है उससे पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम कर देने पर जघन्य बंध स्थिति प्राप्त होती है। नपुंसकवेद की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है उसमें सत्तर कोडाकोडी का भाग देने पर - सागरोपम आता है इसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर नपुंसक वेद की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है।
जिस कर्म प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम की है उतने सौ वर्ष का उसका अबाधाकाल होता है। नपुंसकवेद की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम होने से उसका अबाधाकाल २० सौ अर्थात् दो हजार वर्ष का है। बंध स्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर जो स्थिति होती है वह अनुभव योग्य (उदयावलिका में आने योग्य) स्थिति कहलाती है। अतः अबाधाकाल से रहित स्थिति का कर्मनिषेक होता है अर्थात् अनुभव योग्य कर्मदलिकों की रचना होती है-कर्मदलिक उदय में आने लगते हैं। इस प्रकार नपुंसकवेद की बंध स्थिति का प्रस्तुत सूत्र में कथन किया गया है।
नपुंसक वेद का स्वभाव णपुंसग वेए णं भंते! किं पगारे पण्णत्ते? गोयमा! महाणगरदाहसमाणे पण्णत्ते समणाउसो! से तं णपुंसगा॥६१॥
कठिन शब्दार्थ - महाणगरदाहसमाणे - महानगर के दाह समान-चारों ओर धधकती हुई तीव्र अग्नि समान
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! नपुंसकवेद किस प्रकार का है?
उत्तर - हे आयुष्मन् श्रमण गौतम! नपुंसक वेद महानगर के दाह के समान कहा गया है। यह नपुंसक का निरूपण हुआ।
विवेचन - जैसे किसी महानगर में फैली हुई आग की ज्वालाएं चिरकाल तक धधकती रहती है उसी प्रकार नपुंसक की कामाग्नि भी उत्कृष्ट अतितीव्र और चिरकाल तक धधकती रहती है। इस प्रकार नपुंसक संबंधी कथन पूर्ण हुआ।
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