Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
जीवाजीवाभिगम सूत्र
भावार्थ- मनुष्य नपुंसक कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
मनुष्य नपुंसक तीन प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. कर्मभूमिज, २. अकर्मभूमिज और ३. अंतरद्वीपज, पूर्व में कहे अनुसार भेद कह देने चाहिये ।
विवेचन प्रथम प्रतिपत्ति में कहे अनुसार मनुष्य नपुंसक के भेद प्रभेद कहने चाहिये।
नपुंसक की स्थिति
१६०
पुंसगस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?
गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नपुंसक की कितने काल की स्थिति कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! नपुंसक की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की कही गई है।
विवेचन - सामान्य नपुंसक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है । जघन्य अंतर्मुहूर्त की स्थिति तिर्यंच और मनुष्य नपुंसक की अपेक्षा से है और उत्कृष्ट तेतीस . सागरोपम की स्थिति सातवीं नरक के नैरयिक नपुंसक की अपेक्षा समझनी चाहिये ।
इय पुंसगस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?
गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं । सव्वेसि ठिई भाणियव्वा जाव अहेसत्तमापुढवि णेरड्या ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक नपुंसक की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक नपुंसक की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम। यहाँ सभी रत्नप्रभा आदि नैरयिकों की जिनकी जितनी स्थिति है उतनी यावत् सातवीं (अधः सप्तम) पृथ्वी के नैरयिक तक कह देनी चाहिए ।
विवेचन सामान्य से नैरयिक नपुंसक की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। विशेष विवक्षा से नैरयिक नपुंसकों की अलग अलग स्थिति इस प्रकार है -
१. रत्नप्रभा नैरयिक नपुंसक की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम । २. शर्कराप्रभा नैरयिक नपुंसक की जघन्य स्थिति १ सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपमं । ३. बालुकाप्रभा नैरयिक नपुंसक की जघन्य स्थिति ३ सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम। ४. पंकप्रभा नैरयिक नपुंसक की जघन्य स्थिति ७ सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम। ५. धूमप्रभा नैरयिक नपुंसक की जघन्य स्थिति १० सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति सतरह सागरोपम ।
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org