Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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द्वितीय प्रतिपत्ति नपुंसक के भेद
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भावार्थ - तिर्यंच योनिक नपुंसक कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
तिर्यंच योनिक नपुंसक पांच प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं- एकेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक, बेइन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक, तेइन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक, चउरिन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक ।
एकेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक पांच प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक । यह एकेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक का निरूपण हुआ ।
बेइंदिय तिर्यंच योनिक नपुंसक कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
इंदिय तिर्यंच योनिक नपुंसक अनेक प्रकार के कहे गये हैं। यह बेइन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक का निरूपण हुआ । इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय के विषय में भी कह देना चाहिए ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक तीन प्रकार के कहे गये हैं । यथा - जलचर, स्थलचर और खेचर । . जलचर कितने प्रकार के हैं ?
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जलचर के पूर्वोक्त भेद से यावत् आसालिक को ग्रहण करके कहना चाहिये। यह पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक का वर्णन हुआ।
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विवेचन तिर्यंच नपुंसक के जाति की अपेक्षा पांच भेद कहे गये हैं १. एकेन्द्रिय नपुंसक २. बेइन्द्रिय नपुंसक ३. तेइन्द्रिय नपुंसक ४. चउरिन्द्रिय नपुंसक और ५. पंचेन्द्रिय नपुंसक । एकेन्द्रिय नपुंसकों के पांच भेद हैं १. पृथ्वीकाय नपुंसक २. अप्काय नपुंसक ३. तेजस्काय नपुंसक ४. वायुका नपुंसक और ५. वनस्पतिकाय नपुंसक । बेइन्द्रिय नपुंसक, तेइन्द्रिय नपुंसक, चउरिन्द्रियं नपुंसक अनेक प्रकार के कहे गये हैं । प्रथम प्रतिपति में जो भेद प्रभेद बताये हैं, वे सब यहाँ कहने चाहिये | पंचेन्द्रिय तिर्यंच नपुंसक के तीन भेद हैं १. जलचर तिर्यंच नपुंसक २. स्थलचर तिर्यंच नपुंसक और ३. खेचर तिर्यंच नपुंसक । इनके भेद प्रभेद प्रथम प्रतिपत्ति के अनुसार कह देना चाहिए किन्तु उरपरिसर्प में आसालिक का कथन भी कहना चाहिये क्योंकि आसालिक नियमा सम्मूच्छिम होने से नपुंसकवेदी ही होता है अतः यहाँ पर पूर्वोक्त (स्त्रीवेद और पुरुषवेद के) वर्णन से इसमें विशेषता है कि आसालिक को यहाँ पर सम्मिलित समझना चाहिए।
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से किं तं मणुस्स णपुंसगा ?
मणुस्स णपुंसगा तिविहा पण्णत्ता तंजहा अंतरदीवगा भेदो जाव भाणियव्वो ॥ ५८ ॥
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कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा,
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