Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
उत्तर - जो बाहर से गोल और अंदर समचौरस तथा नीचे पुष्करकर्णिका (कमल की कर्णिका) के आकार वाले होते हैं उनको भवन कहते हैं। जो अपने शरीर परिमाण ऊंचे सब दिशाओं में अर्थात् चारों तरफ अनेक प्रकार के मणि रत्न और दीपकों की प्रभा से प्रकाशित महामण्डप होते हैं उन्हें आवास कहते हैं।
प्रश्न - भवनों और आवासों में क्या फरक होता है?
उत्तर - भवन बाहर से गोल और अन्दर से चतुष्कोण होते हैं। उनके नीचे का भाग कमल की कर्णिका के आकार वाला होता है तथा शरीर परिमाण बड़े मणि तथा रत्नों के प्रकाश से चारों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले आवास (मण्डप) कहलाते हैं। भवनपति (भवनवासी) देव भवनों तथा आवासों दोनों में रहते हैं।
प्रश्न - वाणव्यंतर किसे कहते हैं? उत्तर - वाणव्यंतर शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है -
"अन्तरं अवकाशः तच्चेहाश्रयरूपं द्रष्टव्यं, विविधं भवन, नगर आवास रूपमन्तरं येषां ते . व्यन्तराः [तत्र भवनानि रत्नप्रभायाः प्रथमे रत्नकाण्डे उपर्यधश्च प्रत्येकं योजनशतमपहाय शेषे अष्टयोजन शत प्रमाणे मध्यभागे भवन्ति, नगराण्यपि तिर्यग्लोके तत्र तिर्यग्लोके यथा जम्बूद्वीपद्वाराधिपतेः विजयदेवस्य अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वादशयोजनसहस्रप्रमाण नगरी। आवासाः विष्वपि लोकेषु, तत्र उर्ध्वलोके पाण्डकवनादौ इति ] अथवा
विगतमन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः तथाहि मनुष्यान् अपि चक्रवर्ती वासुदेव प्रभृतीन् भृत्यवत् उपचरन्ति केचित् व्यन्तरा इति। मनुष्येभ्यो विगतान्तरा। यदि वा विविधमन्तरं शैलान्तरं, कदरान्तरं वनान्तरं वा अथवा आश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः।
प्राकृतत्वाच्च सूत्रे वाणमन्तरा इति पाठ, यदि वा 'वानमन्तराः' इति पद संस्कारः तत्र इयं व्युत्पतिः - वनानाम् अन्तराणि वनान्तराणि तेषु भावाः वन्मन्तराः।
- अर्थ - यहां अन्तर का अर्थ अवकाश है वह आश्रयरूप है। अनेक प्रकार के भवन और नगर जिनके रहने का स्थान है उनको व्यन्तर देव कहते हैं अथवा यहां अन्तर शब्द का अर्थ फर्क है अतः मनुष्यों के साथ जिनका अन्तर (व्यवधान) नहीं पड़ता है उनको व्यन्तर कहते हैं क्योंकि बहुत से व्यन्तर देव, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की सेवा नौकर की तरह करते हैं मनुष्यों के साथ अन्तर (व्यवधान) नहीं रहता है इसलिए उनको व्यन्तर कहते हैं अथवा पहाड़, गुफा, वन आदि इनका आश्रय (स्थान) है उनको व्यन्तर कहते हैं। यह प्राकृत भाषा होने के कारण मूल पाठ में 'वाणमंतर' शब्द दिया है। इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है कि जो वनों (जंगलों) में रहते हैं।
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