Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सत्र
११. वेद द्वार - मनुष्यों में तीनों वेद होते हैं और अवेदी भी होते हैं।
१२. पर्याप्ति द्वार · पांचों पर्याप्तियां होती है। भाषा और मन:पर्याप्ति को एक मानने के कारण यहा पांच पर्याप्तियां ही कही गई है।
१३. दृष्टि द्वार - मनुष्यों में तीनों दृष्टियां पायी जाती है। १४. दर्शन द्वार - चारों ही दर्शन पाते हैं।
१५. ज्ञान द्वार - मनुष्य ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी। जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे ज्ञानी हैं और जो मिथ्यादृष्टि हैं वे अज्ञानी हैं। कोई मनुष्य दो ज्ञान वाले, कोई तीन ज्ञान वाले, कोई चार ज्ञान वाले और कोई एक ज्ञान वाले होते हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं। अथवा मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी हैं। जो चार ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी हैं। जो एक ज्ञान वाले हैं वे केवलज्ञानी हैं। केवलज्ञान होने पर शेष चारों ज्ञान नष्ट हो जाते हैं। कहा भी है. - "ण?म्मि उछाउमथिए णाणे" केवलज्ञान होने पर छाद्मस्थिक ज्ञान नष्ट हो जाते हैं। जैसे जातिवंत श्रेष्ठ मरकत मणि का संपूर्ण मल दूर हो जाता है तो वह मणि एक रूप में ही अभिव्यक्त होती है। वैसे ही जब आत्मा के संपूर्ण आवरण दूर हो जाते हैं तो क्षायोपशमिक ज्ञान नष्ट होकर संपूर्ण क्षायिक ज्ञान (केवलज्ञान) एक ही रूप में अभिव्यक्त हो जाता है।
जो अज्ञानी हैं वे दो अज्ञान वाले भी होते हैं और तीन अज्ञान वाले भी होते हैं जो दो अज्ञान वाले हैं वे मतिअज्ञानी श्रुतअज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञान वाले हैं वे मतिअज्ञानी श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं।
१६. योग द्वार - तीनों योग वाले और अयोगी भी होते हैं। १७. उपयोग द्वार - मनुष्यों में साकार उपयोग और अनाकार उपयोग दोनों होते हैं। १८. आहार द्वार - मनुष्य छहों दिशाओं से आगत पुद्गल द्रव्यों का आहार करते हैं।
१९. उपपात द्वार - सातवीं नरक, तेऊकाय, वायुकाय और असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों और तिर्यंचों को छोड़कर शेष सभी स्थानों से आकर मनुष्य उत्पन्न हो सकते हैं।
२०. स्थिति द्वार - मनुष्यों की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है।
२१. मरण द्वार - मनुष्य मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। .
२२. उद्वर्तना द्वार - मनुष्य मर कर सभी नरकों में, तिर्यंचों में, मनुष्यों और सभी अनुत्तरौपपातिक देवों में उत्पन्न होते हैं और कोई संपूर्ण कर्मों को क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त भी होते हैं।
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