Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
नियम से मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी हैं। जो तीन अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। उनमें तीन योग दो उपयोग हैं। वे छह दिशाओं से आगत पुद्गलों का आहार करते हैं। प्रायः करके वे वर्ण से काले आदि पुद्गलों का आहार करते हैं। वे तिर्यंचों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। वे समवहत और असमवहत दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं। वे मरकर गर्भज तिर्यंच एवं मनुष्य में जाते हैं, सम्मूर्च्छिमों में नहीं जाते हैं अत: हे आयुष्मन् श्रमण! वे दो गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येक शरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। यह नैरयिकों का निरूपण हुआ। .
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक जीवों का २३ द्वारों से निरूपण किया गया है जो इस प्रकार हैं
१. शरीर द्वार - नैरयिक जीवों में भव स्वभाव से ही तीन शरीर पाये जाते हैं - वैक्रिय, तैजस और कार्मण। ... २. अवगाहना द्वार - नैरयिक जीवों के शरीर की अवगाहना दो प्रकार की कही गयी है - १. भवधारणीय - जो अवगाहना जन्म से होती हैं वह भवधारणीय है अथवा भव के प्रभाव से होने , वाली अर्थात् उत्पाद समय में होने वाली अवगाहना भवधारणीय अवगाहना कहलाती है। २. उत्तरवैक्रिय
जो भवान्तर के वैरीभूत नैरयिक को मारने के लिये उत्तरकाल में विचित्र रूपों में बनाई जाती है वह । उत्तर वैक्रिय अवगाहना है।
पहली नारकी से सातवीं नारकी तक के जीवों की भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पहली नारकी की ७२ धनुष छह अंगुल की, दूसरी नारकी की १५२ धनुष १२ अंगुल की, तीसरी नारकी की ३१, धनुष, चौथी नारकी की ६२% धनुष, पांचवीं नारकी की १२५ धनुष, छठी नारकी की २५० धनुष और सातवीं नारकी की ५०० धनुष होती है। उत्तर वैक्रिय करे तो जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग उत्कृष्ट अपनी अपनी अवगाहना से दुगुनी। जैसे सातवीं नारकी के भवधारणीय शरीर की अवगाहना ५०० धनुष की और उत्तर वैक्रिय करे तो १००० धनुष की।
३. संहनन द्वार - नैरयिकों में छह प्रकार के संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता क्योंकि उनके शरीर में न तो हड्डियाँ होती है और न शिराएं और स्नायु ही होती है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं वे उन नैरयिकों के शरीर रूप में परिणत होते हैं।
४. संस्थान द्वार - नैरयिकों के भवधारणीय शरीर और उत्तर वैक्रिय शरीर में एक हुण्डक संस्थान है।
५. कषाय द्वार - नैरयिकों में चारों ही कषाय होते हैं। ६. संज्ञा द्वार - नैरयिकों में चारों ही संज्ञाएं होती हैं।
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