Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
८२
जीवाजीवाभिगम सूत्र
एकोदराः पृथग्ग्रीवाः, अन्योन्य फल भक्षिणः। प्रमत्ता इव नश्यन्ति यथा भारण्ड पक्षिणः॥ एकोदराः पृथग्ग्रीवाः त्रिपादा मर्त्य भाषिणः। भारण्ड पक्षिणः तेषां मृतिर्भिन्न फलेच्छया॥ भारण्ड पक्षिण: जीवद्वय रूपा भवंति, ते च सर्वदा चकित चित्ता भवन्ति इति।"
अर्थात् - भारण्ड पक्षी का एक शरीर होता है और उसमें दो जीव होते हैं वे हमेशा अप्रमत्त रह कर एवं चकित-चकित की तरह सावधान होकर जीवन निर्वाह करते हैं अर्थात् आहार पानी लेते हैं। यही बात दोनों श्लोकों में कही गयी है कि उनके पेट एक होता है, पैर तीन होते हैं, मनुष्यों की तरह भाषा बोलते हैं दो गर्दन (गला) होती है और दो ही मुख होते हैं। एक मुख से अमृत फल खाता है तो दूसरा मुख ईर्षालु बन कर जहरीला फल खा लेता है इस तरह उन दोनों की मृत्यु एक साथ हो जाती है। ___ यह उपरोक्त मान्यता टीकाकार की है किंतु पूर्वाचार्य बहुश्रुत मुनिराज तो ऐसा फरमाते हैं कि यह एक ही जीव होता है किंतु उसके शरीर की रचना उपरोक्त प्रकार से होती है। उसमें दो जीव रूप उन्नीस प्राण नहीं होते हैं किंतु एक जीव के अनुसार दस प्राण ही होते हैं।
से किं तं लोमपक्खी ?
लोमपक्खी अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा - ढंका, कंका जे यावण्णे तहप्पगारा से तं लोमपक्खी ।
भावार्थ - लोम (रोम) पक्षी कितने प्रकार के कहे गये हैं?
लोम (रोम) पक्षी अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - ढंक, कंक यावत् इसी प्रकार के अन्य जो पक्षी हैं उन्हें लोमपक्षी समझना चाहिये। यह रोम पक्षी का वर्णन हुआ।
. विवेचन - प्रज्ञापना सूत्र में लोम पक्षी के भेद इस प्रकार बताये हैं - ढंक, कंक, कुरल, वायस (कौआ) चक्रवाक, हंस, कलहंस, राजहंस, पादहंस, आड, सेडी, बक (बगुला) बलाका, पारिप्लव, क्रौंच, सारस, मेसर, मसूर, मयूर (मोर), सप्तहस्त गहर, पौण्डरिक, काक, कामिंजुय, वंजुलक, तीतर, वर्तक (बतक), लावक, कपोत, कपिजल, पारावत (कबूतर) चिटक, चरस कुक्कुट (मुर्गा) शुक, बी (मोर विशेष) मदनशलाका, कोकिल (कोयल), सेह और वरिल्लक आदि।
से किं तं समुग्गपक्खी ?
समुग्गपक्खी एगागारा पण्णत्ता जहा पण्णवणाए, एवं विययपक्खी जाव जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जत्ता य अपज्जत्ता य,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org