Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम प्रतिपत्ति - गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों का वर्णन
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कसाया सव्वे सण्णाओ चत्तारि, लेस्साओ छ, पंच इंदिया, पंच समुग्घाया आइल्ला सण्णी णो असण्णी तिविह वेया छप्पज्जत्तीओ छअप्पज्जत्तीओ दिट्ठी तिविहा वि तिण्णि दंसणा णाणी वि अण्णाणी विजेणाणी ते अत्थेगइया दुणाणी अत्थेगइया तिण्णाणी, जे दुण्णाणी ते णियमा आभिणिबोहियणाणी य सुयणाणी य, जे तिण्णाणी ते णियमा आभिणिबोहियणाणी सयणाणी ओहिणाणी, एवं अण्णाणी वि, जोगे तिविहे उवओगे दुविहे आहारों छद्दिसिं उववाओ णेरइएहिं जाव अहेसत्तमा तिरिक्खजोणिएसुसव्वेसु असंखिज्जवासाउय वज्जेसु मणुस्सेसु अकम्मभूमग अंतरदीवग असंखेन्जवासाउय वज्जेसु देवेसु जाव सहस्सारो, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी, दुविहा वि मरंति, अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु जाव अहेसत्तमा तिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु सव्वेसु देवेसु जाव सहस्सारो, चउगइया चउआगइया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं जलयरा॥३८॥
. भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? - उत्तर - हे गौतम! गर्भज जलचर जीवों के चार शरीर कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण। इन जीवों के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट हजार योजन की है। इन जीवों में छह संहनन होते हैं वे इस प्रकार हैं - वज्रऋषभनाराच संहनन, ऋषभनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्द्धनाराच संहनन, कीलिका संहनन और सेवात संहनन। ये छह संस्थान वाले हैं। यथा - समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान, सादि संस्थान, वामन संस्थान, कुब्ज संस्थान और हुंड संस्थान।। - इन जीवों के चारों कषाएं, चारों संज्ञाएं, छहों लेश्याएं, पांचों इन्द्रियाँ, प्रारंभ के पांच समुद्घात होते हैं। इनमें तीन वेद, छह पर्याप्तियाँ, छह अपर्याप्तियाँ, तीनों दृष्टियाँ और तीन दर्शन पाये जाते हैं। ये जीव ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी हैं उनमें कोई दो ज्ञान वाले हैं और कोई तीन ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी हैं और श्रुतज्ञानी हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं। इसी तरह अज्ञानी भी हैं। इन जीवों में तीन योग और दोनों उपयोग होते हैं। छहों दिशाओं से इनका आहार होता है। ये जीव नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् सातवीं नरक से भी आकर उत्पन्न होते हैं। असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंचों को छोड़ कर सभी तिर्यंचों से आकर उत्पन्न होते हैं। अकर्मभूमिज, अंतरद्वीपज और असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं और सहस्रार तक के देवलोकों से आकर भी उत्पन्न होते हैं। इन जीवों की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्व कोटि की है। ये
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