Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम प्रतिपत्ति - तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों का वर्णन - स्थलचर के भेद
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उत्तर - हे गौतम! मनुष्य क्षेत्र के अंदर ढाई द्वीपों में निर्व्याघात रूप से पन्द्रह कर्मभूमियों में, व्याघात की अपेक्षा पांच महाविदेह क्षेत्रों में अथवा चक्रवर्ती के स्कन्धावारों (सैनिक छावनियों) में या वासुदेवों के स्कन्धावारों में, बलदेवों के स्कन्धावारों में, माण्डलिकों के स्कन्धावारों में, महामाण्डलिकों के स्कन्धावारों में, ग्राम निवेशों में, नगर निवेशों में, निगम निवेशों में, खेट निवेशों में, कर्बट निवेशों में, मडम्ब निवेशों में, द्रोणमुख निवेशों में, पट्टण निवेशों में, आकर निवेशों में, आश्रम निवेशों में, सम्बाध निवेशों में और राजधानी निवेशों में, इन निवेशों (स्थानों) का जब विनाश होने वाला हो तब इन स्थानों में आसालिका सम्मूर्छिम रूप से उत्पन्न होते हैं। वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र की अवगाहना से और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना से उत्पन्न होते हैं। अवगाहना के अनुरूप ही उसका विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई) होता है। वह चक्रवर्ती के स्कन्धावार आदि के नीचे की भूमि को फोड़ कर उत्पन्न होता है। वह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है और अंतर्मुहूर्त की आयु भोग कर काल कर जाता है। इस प्रकार आसालिका कहा है। - प्रज्ञापना सूत्र में महोरग के विषय में इस प्रकार वर्णन है -
प्रश्न - महोरग कितने प्रकार के कहे गये हैं?
उत्तर - महोरग अनेक प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार है - कई महोरग एक अंगुल परिमाण, अंगुल के पृथुत्व परिमाण, वितस्ति-वेंत परिमाण, रत्नि-हस्त, रनि पृथुत्व, कुक्षि-दो हाथ, कुक्षि पृथुत्व, धनुष, धनुष पृथुत्व, गाऊ, गाऊ पृथुत्व, योजन, योजन पृथुत्व, सौ योजन, सौ योजन पृथुत्व परिमाण और हजार योजन परिमाण होते हैं। वे स्थल में उत्पन्न होते हैं किंतु जल में विचरण करते हैं और स्थल में भी विचरण करते हैं। वे यहाँ अढाई द्वीप में नहीं होते किंतु मनुष्य क्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। इसी प्रकार के अन्य जो प्राणी हों, उन्हें महोरग समझना चाहिये। . ___स्थलंचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक के २३ द्वारों की विचारणा जलचरों के समान ही समझना चाहिये जो अंतर है वह इस प्रकार है -
अवगाहना द्वार - इन जीवों के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से योजन पृथक्त्व (पृथुत्व) है।
स्थिति द्वार - इनकी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट ५३ हजार वर्ष की है। से किं तं भुयपरिसप्प संमुच्छिम थलयरा?
भुयपरिसप्प संमुच्छिम थलयरा अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा - गोहा उला जाव जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जत्ता य अपज्जत्ता य, सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलासंखेज्जं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं ठिई
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