Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
'से तं बायर पुढविकाइया' ही बताया है। वैसे ही सूक्ष्म बादर का ही उपसंहार करते आने के कारण यहाँ पर भी बादर वनस्पति के (प्रत्येक-साधारण) अवांतर भेदों का अलग-अलग उपसंहार नहीं करके पूर्व परिपाटी के अनुसार बादर वनस्पति का ही किया है। 'समणाउसो' पाठ तो किसी में (कहीं पर)
म अपकाय में नहीं है। वैसे ही यहाँ भी दोनों भेदों में नहीं दिया। अत: पाठ सुधारने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार परित्ता' एवं 'अणंता' शब्द का अलग-अलग अर्थ करना ही विशेष संगत लगता हैं
L A PIATT ALOTHIN तथा ऐसा करने पर शंका का स्थान भी नहीं रहता है। क्योंकि 'परित्त' के आगे आने वाले असंख्य एवं "अनंत' के पहले आने वाले 'अपरित्त' शब्द को मध्यवर्ती होने से गौण करके सूत्र रचा गया हो, ऐसा प्रतीत होता है। 'परित्ता अणंता' शब्द शाकपार्थिवादि की तरह मध्यम पदलोपी. समास मालूम पड़ता है। क्योंकि परित्त' शब्द से असंख्य का और अनंत शब्द से अपरित्त'का अध्याहार हो जाता है। जैसे कि भगवती सत्र शतक ५ उद्देशक.९ में पापित्य स्थविरों ने भगवान् महावीर से पूछा कि असंख्यात लोक में अनंत व परित्त रात्रि दिन उत्पन्न हुए? इसके उत्तर में भगवान ने साधारण शरीरी अनंत जीवों SHEETINITTE
R ESTINGHOST को लक्ष्य करके 'अनंत' और प्रत्येक शरीरी असंख्य जीवों को लक्ष्य करके "परित्ता' रात्रि दिवस उत्पन्न हुए हैं इत्यादि (हाँ) रूप से उत्तर दिया है। यहाँ पर भी 'परित्ता" शब्द से असंख्य को व 'अणता' शब्ट से अप्ररित्त का ग्रहण हुआ है। ऐसा. अर्थ यहाँ पर भी करने से अर्थ संगति बराबर बैठ जाता है। यदि कोई.प्राचीन प्रति उपलब्ध हो जाय और उसमें 'पारत्ता.असंखजा अपारता अणता' एसा स्पष्ट
METEOREKisionNS र कोलार THE पाठ मिला जाय, तब तो यह पीठ रखने में भी कोई बाधा प्रतीत नहीं होती है। अन्यथा तो वही पाठ
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