Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम प्रतिपत्ति घायुकाधिक जीवों का वर्णन
R. वाउमामे स्वातीदा भ्रम)माअभियंता दिशाओं में बहने वाली हवा गाँ
वाक्कलिया (वातात्कालिका) समुद्राकसमानतिजबहने वाली तूफानी हवा IS ११. मंडलियावाए (मंडलिका वात) वांतीली चधकरदार हिवाका पELETE TEE FSS १सक्कालियावाएं (उत्कलिका वात-तिबोधियों मिश्रित हिवाट - FEBी
गुंजावाएं (गुंजावांत सनसनाती हुई ही का! E IF गंगक माँ छ झंझावा झंझावात) वर्ष के साथ चलनेवाली तेज हवा, अधड़ा - FIFFER सि.संवगावाए (संवत्तकासात) सप्रलयकाल में चलने वाली हवाला TIE २ायणवार (चमवात) सावन (ठोस) वायुवित्तप्रश्री आदि के नीचे रही हुई बायुष कांड सत्तणुकापात नुवाला) बनवाल के नीचे रही हुझपताली वायु
Fiharish ११ सुद्धवार शुद्धवात) मन्दवावु या मशक आदि में भी हुई हवा
कर औरभी इसी प्रकार की हवाएं बाकर वायुकामिक हैं। यहां पर वादर वायुकाधिकों में सचित वायुओं काही महण हुआ है। आक्सीजन आदि अविना कायुओंला ग्रहण नहीं समझना चाहिये। ये दो प्रकार के हैं पूर्यपक्षक और अपर्याप्तका TRE , गुग
कक्ष तेसि प्रभंते जीवाणं कह सरीसा षण्माताको
Fry की ! गोयामा चत्तारि सहीरगा यण्णात्ता, तंसाहा कोओरलिए। वेउव्वए तेथए। कम्माएल सरीरसा पडागसंहिया चत्तारि समुग्घाया-वेयन समुग्धाएं कसायसमुग्धाए, मारणतिचा समुग्याए, वेउव्विए समुग्घाए आहारो णिव्वाघाएण छद्दिसिंवाधाय पडुच्च सिर्य तिहिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसि वखाओबामणुय रइएसु णत्थि, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साई, सेसं तं चेव एगगइया दुआड़या परित्ता असंखेजा पण्णत्ता समणाउमो से तं वायर वाउक्काइया सेत्तं वाडेक्काइया ॥२६॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! उन बादर वायुकायिक जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं।
उत्तर - हे गौतम! उन जीवों के चार शरीर कहे गये हैं । यथा" औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कामण। उनके शरीर पताका (ध्वजा) के आकार के हैं। उनके चौर समुद्घात होते हैं । वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणांतिक समुद्घात और वैक्रिय समुद्घात। वे निर्व्याघात की अपेक्षा छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं और व्याघात होने पर कदाचित् तीन दिशाओं का, कदाचित् धीर दिशाओं का, केदाचित् पांचं दिशाओं के पुद्गलों को आहार ग्रहण करते हैं। बाँदर वायुकायिक जीव देवगति, मनुष्य गति और नरक गति में उत्पन्न नहीं होते। उनकी स्थिति जघन्य
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