Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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26/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
आ रही जिन शासन की उत्तम प्रणाली; जैसे संघीय अनुशासन, आचारव्यवस्था एवं संयमनिष्ठता आदि को अखण्ड रखने वाले हैं। प्रव्रज्या (लघुदीक्षा) उपस्थापना, नन्दिरचना आदि कुछ विधि-विधान ऐसे हैं जो आत्मविशुद्धि के साथ-साथ अन्य भव्यप्राणियों के लिए भी आत्म साधना के मार्ग पर आरुढ़ होने के लिए वैराग्य और संयम के भाव उत्पन्न करते हैं।
___ कुंभस्थापना, दीपकस्थापना, जवारारोपण आदि विधि-विधान तत्संबंधी अनुष्ठानों में मंगलकारी होते हैं और प्रारंभ किये गये सुकृत्यों को निर्विघ्न सम्पन्न करते हैं। सकलीकरण, शुचिविद्या आरोपण, छोटिका प्रदर्शन, विघ्नोत्त्रासन, दिक्पाल आह्वान, भूतबलिप्रक्षेपण आदि विधि- विधान प्रतिष्ठादि के समय प्रतिष्ठा सम्बन्धी कार्यों को सम्पादित करने वाले वाले प्रतिष्ठाचार्य, विधिकारक एवं स्नात्रकार आदि के द्वारा नूतन चैत्य, नूतन जिनप्रतिमा आदि की बाहरी आसुरी शक्तियों से रक्षा करते हैं, सभी प्रकार के उपद्रवों को शान्त करते हैं और सत्क्रियाओं को निर्विघ्नतया सम्पन्न करने में निमित्तभूत बनते हैं। उपधान, योगोद्वहन, ध्यान आदि विधि-विधान उस कोटि के हैं, जिनके द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की निर्जरा होती हैं, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र पुष्ट होता हैं तथा परंपरा से मोक्ष फल की प्राप्ति होती है। सामायिक, प्रतिक्रमण, वंदन, पूजन, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग आदि विधि-विधान कषायभावों को शांत करने वाले, दैनिक पापों की शुद्धि करने वाले, अध्यवसायों (परिणामों) को निर्मल बनाने वाले, पापक्रियाओं से विरत करने वाले और साधना की उच्चकोटी पर पहुँचने वाले हैं। इसके सिवाय अन्य और भी विधि-विधान अपनी-अपनी विशिष्टताओं को लिये हुए हैं। विधि-विधानों के प्रयोजन
जैन परम्परा में प्रायः अनुष्ठान और आत्मिक आराधनाएँ विधि-विधान युक्त ही सम्पन्न होती हैं चाहे वे विधि-विधान लघुरूप में हों या विस्तृत रूप में हों। यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि आखिरकर ये विधि-विधान किन उद्देश्यों को लेकर किये जाते है ? इस विषय पर गहराई से चिन्तन किया जाय तो निम्नोक्त बिन्दू परिलक्षित होते हैं - • जैसे कि धार्मिक क्रियानुष्ठानों के द्वारा पाप प्रवृत्तियाँ कम होती हैं, धीरे-धीरे
वे दुष्कर्म निरूद्ध हो जाते है और आत्मा परमात्मा बन जाती है। धार्मिक क्रियाकलापों के माध्यम से मानव जीवन का अमूल्य समय सार्थक बनता है, नये पाप कर्मों का संवर होता है और पुराने पापकर्म निर्जरित हो जाते हैं।
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