Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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24/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
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विधि-विधानों के प्रकार
जैन धर्म में अनेक प्रकार के विधि-विधान प्रचलित हैं। उन विधि-विधानों में विभाजन की अपेक्षा से देखें तो प्रमुखतः छह प्रकार के विधि-विधान परिलक्षित होते हैं जो निम्न हैं
संस्कार संबंधी विधि-विधान
आवश्यकक्रिया संबंधी विधि-विधान ३. शांतिक-पौष्टिक कर्म संबंधी विधि-विधान
प्रतिष्ठा संबंधी विधि-विधान और मांत्रिक साधना संबंधी विधि-विधान
योगोद्वहनादि संबंधी विधि-विधान।
१. संस्कार संबंधी विधि-विधान - मानव जन्म में जीवन को संस्कारित करने के लिए अनेक प्रकार के संस्कारों का विधान करना आर्यव्यवहार है। सोलह संस्कार के नाम प्रसिद्ध है। इन संस्कारों के विधान की प्रक्रिया आज भी ब्राह्मणादि वों में प्रचलित है। वर्धमानसरिकृत 'आचारदिनकर' नामक जैन ग्रन्थ में उक्त सोलह संस्कारों की विधियाँ सम्यक् प्रकार से उल्लिखित है। हिन्दू धर्म के अनुयायी वैश्य वर्ण में ये विधि विधान अभी भी प्रचलित हैं, किन्तु जैन कुलों में ये संस्कार विधान उत्तरोत्तर उपेक्षित होते जा रहे हैं, तथापि इनमें से कुछ संस्कार यथा मुण्डन, नामकरण कर्णवेध आदि लोक व्यवहारानुसार आज भी प्रचलित है। इनके सिवाय बारहव्रत- आरोपण, मुनि-दीक्षा, उपधान तप आदि संस्कार आज भी विधिपूर्वक सम्पन्न किये जाते हैं।
२. आवश्यकक्रिया संबंधी विधि-विधान - सामायिक, चैत्यवन्दन, देववन्दन, प्रतिक्रमण, पौषध आदि नित्य-नैमित्तिक रूप में की जाने वाली क्रियाएँ आवश्यक विधि-विधान कहलाते हैं। इससे संबंधित अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। ये सभी विधि-विधान प्रतिदिन के व्यवहार में होने से जीवंत भी हैं फिर भी इन विधि-विधानों में विशेष शुद्धि और अप्रमत्त भावों का होना आवश्यक है। इनके मूलपाठ प्राकृत भाषा में होने के कारण ये अनुष्ठान प्रायः समझपूर्वक नहीं किये जाते हैं।
३. शांतिक-पौष्टिक संबंधी विधि-विधान - विश्व में काल के दुष्प्रभाव से अनेक तरह के उपद्रव होते रहते हैं। संकटकालीन स्थितियाँ बनती रहती हैं। उन प्रसंगों में शांतिकर्म का विधान अत्यन्त राहत देता है। व्यावहारिक जीवन में हर कोई व्यक्ति चाहता है कि उसके विघ्न शान्त हो और अनुकूल पदार्थों की प्राप्ति
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