Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/23
कर सकता है। भद्रबाहुस्वामी पुनः आवश्यकनियुक्ति' कहते हैं कि मात्र जानकारी होने से कभी भी कार्य सिद्धि नहीं होती है। जैसे कोई तैरना जानता हो किन्तु तैरने की क्रिया न करें तो डूब जाता है वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता है वह संसार सागर में डूब जाता है। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता है, अकेला अंधा या अकेला पंगू इच्छित साध्य तक नहीं पहुँच सकता है उसी प्रकार मात्र ज्ञान या मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं हो सकती है। उपदेशकल्पवेली में कहा गया है कि यदि क्रिया (आचरण) नहीं है और क्रिया की रूचि भी नहीं है तो ज्ञान सही अर्थ में ज्ञान नहीं हो सकता है। यदि ज्ञान नहीं हो और आचरण मात्र हो तो वह आचरण भी सही अर्थ में सम्यक् आचरण नहीं होता है। लक्ष्य की प्राप्ति में ज्ञान और क्रिया दोनों का सहयोग होना जरुरी है। अकेली क्रिया फल नहीं देती है और अकेला ज्ञान भी कभी फल नहीं देता है जैसे-वन के बिना बसंत ऋतु का आनन्द प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
शास्त्र का यह वचन भी स्मरणीय है कि सम्यग्दर्शन के अभाव में सत्क्रिया करने वाले अभव्यजीव नवग्रैवेयक देवलोक तक चले जाते हैं, किन्तु मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। इससे सिद्ध होता है कि मुक्ति न तो मात्र ज्ञान से प्राप्त हो सकती है और न केवल सदाचरण से। किसी अपेक्षा ज्ञान स्वल्पमात्रा में हो तो भी चल सकता है परन्तु क्रिया (आचरण) यदि बराबर न हो तो व्यर्थ है। दूसरों के ज्ञान का उपयोग हम अपनी क्रियाओं में कर सकते हैं परंतु अन्य द्वारा की गई क्रिया हमारे लिए उपयोगी नहीं हो सकती है। यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध हैं कि किसी भी प्रकार की विद्या या कला का फल तत्संबंधी ज्ञान को आचरण का रूप देने से ही प्राप्त होता है। शास्त्रों में तो यहाँ तक वर्णित है कि कदाचित् सूत्र का अर्थ न भी जानता हो, तब भी तीर्थकर प्रणीत सूत्रार्थ में श्रद्धा रखकर जो भावपूर्वक आचरण करता है उसका पापकर्म रूपी विष उतर जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ज्ञानपूर्वक किया गया आचरण यानि ज्ञानपूर्वक की गई क्रिया निश्चित रूप से मोक्षफल को प्रदान करती है। हर साधक का अंतिम लक्ष्य यही रहा है तथा लक्ष्य की सिद्धि जिनके आधार पर हो उस क्रिया की कितनी आवश्यकता हो सकती है ? यह तो अनुभवसिद्ध है। लक्ष्य की सिद्धि जिस क्रिया के अवलम्बन पर टिकी हुई हो उस क्रिया की आवश्यकता कब-कितनी हो सकती है ? यह अनुभवगम्य विषय है।
आवश्यकनियुक्ति गा. ११५४-११५६ २ वही गा. १०१-१०२
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