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जैन-दर्शन के नव तत्त्व बृहद्रव्यसंग्रह में नेमिचन्द्राचार्य ने जीव का स्वरूप बताते हुए कहा है कि तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, आयु, और आनपान (श्वासोच्छ्वास) एवं प्राण को जो धारण करता है वह व्यवहार-नय से जीव है। और निश्चयनय से जिसमें चेतना है वही जीव है।*
इस प्रकार भारतीय दर्शन में आत्मा के संबंध में जो विचार उपलब्ध हैं उनको संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इससे स्पष्ट है कि आत्मा के संबंध में चिन्तन निरन्तर विकसित हुआ है।
जीव के लक्षण आचार्य उमास्वाति ने जीव के लक्षण के बारे में कहा है कि 'उपयोग' ही जीव का लक्षण है।०
'उपयोग' का अर्थ है ज्ञान और दर्शन। ज्ञान का अर्थ है जानने की शक्ति और दर्शन का अर्थ है देखने की शक्ति। उपयोग जीव का गुण या लक्षण है।
किसी को शंका हो सकती है कि औपशमिक आदि पाँच भावों को जीव का लक्षण कहने के बाद 'उपयोग' यह अलग लक्षण मानने का क्या कारण है?
इसका उत्तर यह है कि औपशमिक आदि पाँच भाव जीव के हैं यह सत्य है, परन्तु वे सब जीवों में रहते ही हैं ऐसा नहीं है और हमेशा होते ही हैं ऐसा भी नहीं। इसलिए उसे उपलक्षण कहा जा सकता है, लक्षण नहीं कहा जा सकता। जीव तत्त्व सब जीवों में होता है और हमेशा रहता है। जीव तत्त्व अर्थात् उपयोग। यही जीव का मुख्य लक्षण है।
जीव तत्त्व को छोड़कर शेष कर्मसापेक्ष होने से जीव के उपलक्षण हैं। लक्षण नहीं हैं। जीव का जो भाव वस्तु को ग्रहण करने लिए प्रवृत्त होता है, उसे 'उपयोग' कहते हैं।"
जीव का जो बोधरूप व्यापार है, उसे 'उपयोग' कहते हैं। जीव में चेतना शक्ति होने से उसे बोध होता है। जड़ में चेतना शक्ति न होने से उसे बोध नहीं होता। आत्मा में अनन्त गुणपर्याय हैं। परन्तु उनमें 'उपयोग' मुख्य है। वह स्व-परप्रकाशक है इसलिए 'उपयोग' को आत्मा का लक्षण बताया गया है।२२
उपयोग के भेद ज्ञान के आठ तथा दर्शन के चार, इस प्रकार उपयोग के बारह प्रकार होते हैं। वे ये हैं :
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