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जैन-दर्शन के नव तत्त्व इस प्रकार भूत से लेकर चेतन तक आत्म-विषयक उत्क्रान्ति का इतिहास यहाँ पूरा हो जाता है। १३
अन्य दर्शनों की मान्यताएँ :सांख्य, योग और वेदान्त दर्शन आत्मा को स्थायी, अनादि, अनन्त, अविकारी, नित्य, निष्क्रिय कूटस्थ और नित्य मानते हैं। परन्तु उसे परिवर्तनीय नहीं मानते। षड्दर्शनसमुच्चय में कहा गया है कि सुख, दुःख और ज्ञान आत्मा के धर्म नहीं, प्रकृति के धर्म हैं। सांख्य आत्मा को कर्ता नहीं मानता केवल भोक्ता मानता है। सांख्य-आगम में कहा गया है
“अस्ति पुरुषोऽकर्ता निर्गुणो भोक्ता चिद्रूपः” (गणधरवाद, पृ० ६)। __नैयायिक और वैशेषिक मानते हैं कि आत्मा नित्य है और सर्वव्यापी है। उनके अनुसार प्रत्येक कार्य के लिए जीव स्वयं जिम्मेदार है। वे ज्ञान आदि को आत्मा का गुण मानते हैं।
मीमांसा-दर्शन मानता है कि आत्मा एक है परन्तु देहादि की विविधता के कारण वह पानी में पड़े चन्द्रप्रतिबिम्ब के समान अनेक रूपों में दिखाई देती है।
बौद्ध-दर्शन के अनुसार आत्मा एकान्त क्षणिक है उसमें जीव का स्वभाव नहीं बताया गया है। कारण यह है कि दुःख-मुक्ति उद्देश्य होने से जीव का स्वभाव जानने की आवश्यकता नहीं है। जीव किसी भी वस्तु के एक भाग में नहीं वरन् प्रत्येक भाग में है। उदाहरणार्थ रथ के प्रत्येक भाग में रथ है और रथ की कल्पना भी है। इस प्रकार बौद्ध-धर्म अनात्मवाद को मानता है।।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में कहा गया है कि मृत्यु के उपरान्त जीव अपने पूर्वजों के पास जाकर पूर्णत्व प्राप्त होने तक रहता है।६
बृहदारण्यक उपनिषद् में अनेकजीववाद का विरोध है। कठोपनिषद् के अनुसार जीव चिरन्तन है और शरीर से स्वतन्त्र है। एक जन्म से दूसरे जन्म तक जाने का कारण अविद्या है। गौडपादाचार्य कहते हैं कि जीव एक है उसका जन्म या मरण नहीं होता। उपनिषद् के ऋषियों के अनुसार आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान करने योग्य है।
स्मृतिकार आचार्य मनु कहते हैं कि सब ज्ञानों में आत्मज्ञान ही श्रेष्ठ है। सब विद्याओं में वही पराविद्या है। उसी के कारण मानव को अमृत अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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