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जैन दर्शन के नव तत्त्व
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यह भी मैं नहीं जानता । दार्शनिक चिन्तन की इस समस्या में कभी पुरुष को, कभी प्रकृति को, कभी आत्मा को कभी प्राणों को और कभी मन को आत्मा के रूप में देखा गया। फिर भी चिन्तक का समाधान नहीं हुआ और वह आत्मचिन्तन के क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ता रहा :
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( १ ) देहात्मवाद :- आत्मचिन्तन के क्रमिक विकास का चित्र हमें उपनिषदों में उपलब्ध होता है। प्रथम देहात्मवाद उत्पन्न हुआ । अन्य सब जड़ पदार्थों की तुलना में हमारे शरीर को स्फूर्ति का विशेष रूप से अनुभव होता है। इसलिए देह को ही आत्मा माना गया । यह मत चार्वाक दर्शन का है।
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(२) भूतात्मवाद :- जैन आगम और बोद्ध त्रिपिटक में पंच महाभूतों और चतुर्महाभूतों को आत्मा माना गया है। यह सिद्धान्त देहात्मवाद से मिलता है चार्वाक तो पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु इन भूतचतुष्टय के विशिष्ट रासायनिक मिश्रण से, शरीर की उत्पत्ति के समान, आत्मा की उत्पत्ति मानते थे । (३) इन्द्रियात्मवाद :- अनेक विचारकों को 'देह ही आत्मा है' यह विचार ठीक नहीं लगा। उन्होंने इन्द्रियों को आत्मा माना है। शरीर में होने वाली क्रिया के जो साधन हैं उनमें इन्द्रियों का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसलिए इन विचारकों ने इन्द्रियों को ही आत्मा मान लिया। चार्वाक दर्शन के कुछ मतानुयायी इन्द्रियों को ही आत्मा मानते थे ।
(४) प्राणात्मवाद :- चार्वाक दर्शन के कुछ विचारकों ने प्राण को ही आत्मा मान लिया। उनका कहना था कि निद्रा में सारी इंद्रियों की प्रवृत्ति रुक जाती है, परन्तु साँस चलती रहती है। सिर्फ मृत्यु के बाद साँस नहीं चलती इसलिए जीवन में प्राणों का महत्त्व सर्वाधिक है । इसलिए उन्होंने प्राण को ही आत्मा माना । छान्दोग्य उपनिषद् (३-१५-४) में कहा गया है " इस जगत् में जो कुछ है वह प्राण है।" बृहदारण्यक उपनिषद् (१-५-२२-२३) में कहा गया है " प्राण तो
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देवों का देव है ।"१२
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(५) मनोमय आत्मा कुछ चार्वाक चिन्तकों ने प्राणमय आत्मा के बाद मनोमय आत्मा की कल्पना की ( तैत्तिरीय उपनिषद् २ / ३ । सदानन्द ने वेन्दान्तसार में कहा है कि तैत्तिरीय उपनिषद् के “अन्योऽन्तरात्मा मनोमयः " ( २ / ३ ) इस वाक्य के आधार पर कुछ चार्वाक मन को आत्मा मानते हैं। मन को परमब्रहूम सम्राट् कहा गया है (४-१-६) । छान्दोग्य उपनिषद् में भी उसे ब्रह्म कहा गया है।
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