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जैन-दर्शन के नव तत्त्व से बने हैं। माधवाचार्य ने भी अपने सर्वदर्शन संग्रह में इस संबंध में उल्लेख किया
जैन, बोद्ध तथा सांख्य दर्शन के मतानुसार संसार के मूल में चेतन और अचेतन दो तत्त्व हैं। जैनों ने उन्हें जीव और अजीव नाम दिए हैं। सांख्य ने पुरुष और प्रकृति कहा है। बौद्धों ने नाम और रूप कहा है।
जीव तत्त्व को ही अग्रस्थान क्यों?
सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इन नवतत्त्वों में सर्वप्रथम जीवतत्त्व ही क्यों? इसका कारण यह है कि जीव तत्त्व ही नवतत्त्वों में मुख्य है। आगम और आगमेतर साहित्य में सर्वाधिक वर्णन जीव तत्त्व का ही दिखाई देता
है।
“जीव” नवतत्त्वों का चरित्र-नायक है। जिस प्रकार भौगोलिक दृष्टि से सूर्य के चारों ओर पृथ्वी अखण्ड घूमती रहती है उसी प्रकार आठों तत्त्व जीवतत्त्व के चारों ओर अखण्ड घूमते रहते हैं। इसलिए जीवतत्त्व के सब में प्रमुख होने के कारण विद्वज्जनों और आगमों ने उसे अग्रस्थान दिया है। उदाहरणार्थ तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वातिजी ने दस अध्यायों में से चार अध्यायों में जीव तत्त्व का तथा शेष छ: अध्यायों में अन्य तत्त्वों का विवेचन किया है।
समस्त भारतीय दर्शनों की निर्मिति और विकास आत्मतत्त्व को केन्द्र बिन्दु मानकर हुआ है इसलिए नवतत्त्वों में जीव तत्त्व को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है।
___ आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिन्होंने आत्मतत्त्व का पूरी तरह आंकलन किया है उन्होंने सम्पूर्ण संसार का आकलन किया है। संसार में ऐसा एक भी स्थान नहीं जहाँ जीव की जन्म-मृत्यु की घटनाएँ न घटी हों। संसार में ऐसा कोई भी वैभव नहीं जो जीव को प्राप्त नहीं हुआ। आत्मा की पूरी पहचान होते ही स्वाभाविकतया पूरे संसार का ज्ञान हो जाता है।
आत्मवाद की उत्क्रांति का इतिहास
आत्मा के संबंध में सूत्रकृतांग में विविध विचारधाराओं का दिग्दर्शन किया गया है। अनेक दार्शनिक इस संसार के मूल में पाँच महाभूतों की सत्ता मानते थे- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनके मिश्रण से ही आत्मतत्त्व की निष्पति होती है। बोद्ध साहित्य में भी ऐसे दार्शनिकों का उल्लेख है जो चार तत्त्वों से आत्मा की चेतनता की उत्पत्ति मानते थे। ऋग्वेद के ऋषि आत्मा के संबंध में विचार करते-करते विचारों में डूब जाते हैं और घोषणा करते हैं - मैं कौन हूँ?
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