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कोई भी कोष ग्रन्थ न था । पर अब बड़े हर्ष की बात है कि इस चिरबाँछनीय आवश्यकताको श्रीयुत मास्टर बिहारीलाल जी जैन बुलन्दशहरी ने इस 'वृहद् जैन शब्दार्णव कोप' को वढेही परिश्रम और खोज के साथ लिख कर बहुतांश में पूर्ण कर दिया है ।
इस 'वृहत् जैन शब्दार्णय' का अवतीर्ण होना न केवल जैन बांधवों के ही लिये सौभा ग्य की बात है वरन् समस्त हिन्दी संसार के लिये भी एक बड़ा उपकार है । प्राकृत में तो एक श्वेताम्बरी मुनि द्वारा बनवाये गये ऐसे कोष का होना बताया भी जाता है परन्तु हिंदी में उसका पूर्णतयः अभावही था। इस अभाव की पूर्ति करके श्रीयुत मास्टर साहिब ने हिन्दी जगत को चिर ऋणी बना दिया है । हिन्दी में इस समय कलकत्ता के विश्वकोश कार्यालय और काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यालय से निकले हुए दोनों कोषों में भी जैन वि द्वानों के मत से उनके धार्मिक ग्रन्थों में आये हुए बहुत ही थोड़े शब्दों का -- कुछ नहीं के बराबर -- समावेश हुआ है । अथवा जो कुछ शब्द लिये भी गये हैं तो उनका यथोचित भाष समझाने में प्रायः कुछ न कुछ त्रुटी या अशुद्धि रहगई है । अतः इस कोश के निर्माण होने की बड़ी आवश्यकता थी ।
३. प्रस्तुत कोष के गुणों का संक्षिप्त परिचय ---
(१) इस महान कोश की रचना अँगरेजी के 'एनसाइक्लोपीडिया (Encyclopædia) के नवीन ढंग पर की गई है । जिस शैली से इस ग्रन्थरन का सम्पादन हो रहा है, उससे तो यह अनुमान होता है कि दश बारह सहस्र पृष्ठों से कम में उसका पूर्ण होना संभव नहीं । मेरा विचार तो यह है कि एक सहस्र पृष्ठ तो उसका हस्व अकार सम्बन्धी प्रथम भाग ही ले लेगा । वर्त्तमान ग्रन्थ, प्रथम भाग का प्रथम खंड है जो बड़े साइज़ के लगभग ३५० पृष्ठों में पूर्ण हुआ है । इसका अन्तिम शब्द 'अण्ण' है । बस ! समझ लीजिये कि प्रत्येक बात को समझाने के लिये कितना परिश्रम किया गया होगा ।
(२) इसे देखने से पाठकों को ज्ञात हो जायगा कि किसी शब्द की व्याख्या करने और उसको समझाने का ढंग कितना उत्तम है । भाषा अत्यन्त सरल किन्तु रौचक है । नागरी का साधारण बोध रखने वाले सज्जन भी इससे यथोचित लाभ उठा सकेंगे ।
(३) जिज्ञासुओं की तुलनात्मक रुचि को पूर्ण करने के लिये चतुर सम्पादक ने विविध ग्रन्थों की नामावली सहित स्थान स्थान पर प्रमाण भी उद्धृत कर दिये हैं। किसी शब्द की व्याख्या करने में इतनी गवेषणा की गई है कि फिर उसको पढ़ कर किसी प्रकार का भ्रम नहीं रह जाता । यथा सम्भव सभी ज्ञातव्य विषयों का बोध हो जाता है । व्याख्या करते समय केवल धार्मिक ग्रन्थों ही को आधारस्तम्भ नहीं माना, और न केवल भारतवर्षीय वैद्यकादि सिद्धान्तों का समादर कर एकदेशीयता का ही समावेश होने दिया है, किन्तु समयानुसार
कारने अनुमान और अनुभवशीलता का भी सदुपयोग किया है और पाश्चात्य विद्वानों के मत को भी यथा आवश्यक समाहृत किया है । स्थान स्थान पर धार्मिक तथा वैद्यक सि द्धान्तों को भी बड़े अपूर्व ढंग से मिलाया है और यह सिद्ध कर दिया है कि भारतवर्ष के क्षुद्र से क्षुद्र धार्मिक विश्वास भी बड़ी सुदृढ़ नीव पर स्थिर हैं। जहां तक विचारा जासकता है, यह कहना अत्युक्ति न समझा जावेगा कि ग्रन्थकार ने इस कोष के संग्रह करने में किसी
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