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विषय
हरिवंशपुराणे
विषय
विद्याएँ छेदकर छोड़ गया। अब वह 'आर्य' विद्याधर अपनी 'मनोरमा' विद्याधरीके साथ वहीं रहने लगा। वहाँका राजा बन गया तथा उसके 'हरि' नामका पुत्र हुआ । यही 'हरि' हरिवंशका स्थापक हुआ । इसी वंशमें आगे चलकर कुशाग्रपुर ( राजगृह नगर ) में राजा 'सुमित्र' और रानी 'पद्मावती' का वर्णन २३४-२३६
चतुर्दश सर्ग
जम्बूद्वीपके वत्सदेशमें कौशाम्बी नगरी थी।
उसमें राजा सुमुख राज्य करता था। इस प्रकरणके अन्तर्गत कौशाम्बी नगरी और राजा सुमुखका काव्यशैली से वर्णन वसन्त ऋतुका वर्णन
२२२-२२३
वन विहार के लिए जाता हुआ राजा सुमुख मागमें एक सुन्दरीकी सुन्दरतापर आसक्त हो उसके हरणका विचार करने लगा मन्त्रीके पूछने पर राजा सुमुखने उसे अपनी व्यग्रताका कारण बताया और मन्त्री राजाकी इच्छापूर्ति के लिए प्रयत्न करने लगा २२४-२२५ सन्ध्या होनेपर सुमति मन्त्रीने आत्रेयी नामकी दूती उस वनमाला सुन्दरीके पास भेजी । वनमाला भी अन्तरंगसे राजा सुमुखपर आसक्त थी अतः दूतीका प्रयत्न सफल हो गया और वनमाला पतिकी अनुपस्थितिमें राजाके घर आ गयी। सुमुख और वनमाला परस्परके समागमसे प्रसन्नताका अनुभव करने लगे २२५-२२८
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२१९-२२० २२०-२२१
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षोडश सर्ग
भगवान् शीतलनाथके बाद कालक्रमसे नौ तीर्थंकरोंके मोक्ष चले जानेपर कुशाग्रपुरके राजा सुमित्र और रानी पद्मावती के जब बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रतनाथ के गर्भावतारका समय आया तब रानी पद्मावतीने सोलह स्वप्न देखे । राजा सुमित्रने उनका फल बताया २३७-२३८ भगवान् मुनि सुव्रतनाथका जन्म । देवोंने क्षीरसागरके जलसे अभिषेक कर जन्मोत्सव किया । बाल्य अवस्था पूर्ण होनेपर सुन्दर स्त्रियों के साथ उनका विवाह हुआ २३८- २४० २४०-२४१ शरद् ऋतुका साहित्यिक वर्णन
पञ्चदश सर्ग
राजा सुमुख और वनमाला प्रेमसे रहने लगे। एक बार उन्होंने 'वरधर्म' नामक मुनि राजको आहारदान देकर विद्याधर- युगलकी आयुका वध किया । तदनन्तर बज्रपातसे दोनों मरकर क्रमश: विजयार्ध गिरिके 'हरिपुर' और 'मेघपुर' नगरमें उत्पन्न हुए। वहां भी उन दोनोंका वर-वधूके रूपमें समागम हुबा । वरका नाम 'आर्य' और वधुका नाम 'मनोरमा' था २२९-२३३ वनमाला के विरहमें उसके असली पति 'वीरक' सेठकी बड़ी दुर्दशा हुई । तदनन्तर वह दीक्षा धारण कर प्रथम स्वर्गमें देव हुआ २३३-२३४ निर्वाण प्राप्तिका वर्णन 'वीरक' का जीव देव, अवधिज्ञानसे अपनी पूर्व प्रिया 'वनमाला' और उसके अपहर्ता 'सुमुख' को जानकर विजयार्धसे उठा लाया बौर भरसक्षेत्रके चम्पापुर नगरमें समस्त
गणना
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२४१-२४४
ऋतु चन्द्रतुल्य उज्ज्वल मेघको तत्काल विलीन होते देख उन्हें वैराग्य आ गया, वे संसारके पदार्थोंकी अनित्यताका चिन्तन करने लगे । लौकान्तिक देवोंने उनके वैराग्यकी सराहना की। दीक्षा कल्याणकका वर्णन, वृषभदत्तके यहाँ आहारका निरूपण, देवोपनीत पंचाश्चर्यं २४४-२४५ तेरह मासकी उग्रस्थ अवस्था पूर्ण होनेपर उन्हें केवलज्ञान हुआ, देवोंने समवसरणकी रचना की, ज्ञानकल्याणकका उत्सव किया, दिव्यध्वनिके द्वारा धर्मतोकी प्रवृत्ति हुई । उनके समवसरण में स्थित साधु-समूहकी
२४६-२४७
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सप्तदश सर्ग
उसी हरिवंशमें मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरके सुव्रत नामका पुत्र हुआ। सुव्रतके दक्ष नाम
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