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हरिवंशपुराणे विषय
पृष्ट विषय राजा नाभिराजकी महारानी मरु देवीके
छह कर्मोंका उपश देना तथा अपने पुत्रसौन्दर्यका वर्णन
१४६-१४८ पुत्रियोंको नाना कलाएँ सिखाना और राजनाभिराज और मरुदेवीके यहाँ भगवान् वंश स्थापित करने का वर्णन १६७-१६९ ऋषभदेवके गर्भावतारके छह माह पूर्वसे नीलांजसा नामक नर्तकीको अकस्मात् कुबेरके द्वारा रत्नोंकी वर्षा तथा श्री, ही
विलीन देख भगवान्के वैराग्यका होना, आदि देवियोंके द्वारा भगवानकी माता
लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति, निष्क्रमण मरुदेवीकी सेवा होना और इससे तीर्थकरकी कल्याणककी तैयारीका वर्णन
१६९-१७१ उत्पत्तिका निश्चय होना
१४८-१५० ।। कुबेरनिर्मित पालकीका वर्णन १७१-१७३ मरुदेवीका ऐरावत आदि १६ स्वप्न देखना भगवानका प्रथम ३२ कदम पैदल चलना, देवियोंने उनकी स्तुति की
१५०-१५२ तदनन्तर पालकीपर सवार हो दीक्षानाभिराज द्वारा स्वप्नों के फलका निरूपण और स्थानपर पहुँचना, वहाँ उनके द्वारा प्रजाको भगवान ऋषभदेवके गर्भावतारका वर्णन १५३-१५४
सान्त्वनाका उपदेश देकर अनेक राजाओंके भगवान ऋषभदेवका जन्म तथा रुचक
साथ दीक्षा धारण करना
१७३-१७४ गिरिनिवासिनी देवियोंके द्वारा अपने भगवान्का छह माहका योग लेकर ध्यानस्थ नियोगानुसार सेना एवं चतुर्णिकाय देवोंके
होना तथा साथमें दीक्षित हुए चार हजार आवास-भवनों में, भेरीनाद, शंखनाद आदि राजाओंका भूख-प्याससे बेचैन हो भ्रष्ट होना होनेका वर्णन १५४-१५६ .
१७४-१७६ जन्म-कल्याणकके लिए देवों का आगमन और नमि और विनमिको धरणेन्द्र द्वारा विजयाधनगरकी तात्कालिक शोभाका वर्णन १५६-१५७ की दोनों श्रेणियोंका राज्य प्रदान १७६-१७७ जिनबालकको सुमेरु पर्वतपर ले जाकर
छह माहका योग समाप्त होनेपर भगवान् इन्द्र द्वारा उनका क्षीरसागरके जलसे अभि
आहार के लिए निकले
१७७-१७९ षेक करना
१५८-१५९ भगवान् जब हस्तिनापुर आनेको हुए तब इन्द्राणी द्वारा भगवान्को लेप लगाकर वहाँके राजा सोमप्रभको स्वप्न-दर्शन हुआ। अलंकार पहनाना। उनके सुसज्जित शरीरका सिद्धार्थ पुरोहितने स्वप्नोंका फल बताया। मनोहर वर्णन, इन्द्र द्वारा 'ऋषभदेव' नाम- भगवान पहुंचे और सोमप्रभके छोटे भाई करण और उनकी हृदयहारिणी स्तुति १५९-२६४ ।। श्रेयांसने जातिस्मरणके द्वारा आहारको सब पर्वतसे वापस आकर जिनबालक माता
विधि जानकर उन्हें इच्छुरसका आहार पिताको सौंपना और आनन्द नाटक करना १६४-१६५ दिया। राजा श्रेयांसका सुयश जगमें व्याप्त नवम सर्ग हो गया
१७९-१८२ ऋषभदेवकी बालक्रीड़ा और शरीरकी
पूर्वतालपुरके शकटास्य नामक वनमें भगवानसुन्दरताका वर्णन
१६६-१६७
को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, समवसरण युवा होनेपर उनका नन्दा और सुनन्दाके
रचा गया, अनेक गणधर हुए और भगवान् की साथ विवाह
दिव्यध्वनि खिरने लगी
१८२-१८४ कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर भूख-प्याससे
दशम सर्ग विह्वल प्रजाका नाभिराजकी सम्मतिसे भगवान्के पास जाना और अपना दुःख प्रकट एक हजार वर्षका मौन खोलकर भगवान् करना, भगवान्का सबको सान्त्वना देकर ऋषभदेवने सबको संसार-सागरसे पार करने कर्मभूमिकी रचना करना, असि-मसी आदि दाला तीर्थ दिखलाया। मुनिधर्म और श्रावक
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