Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 17 वंदनाधिकार इसप्रकार वचनालाप करके शिष्यगण वापस चुपचाप होकर खडे ही रहते हैं / तब मुनिराज मिष्ट, मधुर, आत्महितकारी, कोमल अमृतमयी वचनों की पंक्ति से शिष्यजनों को उनके अभिप्राय के अनुसार पोषित करने लगते हैं। ___ कैसे वचन कहते हैं ? राजा को हे राजन ! देव को हे देव ! सामान्य पुरुष को हे भव्य ! हे वत्स ! तुम निकट भव्य हो, अब तुम्हारा संसार अल्प ही बाकी है, अतः अब तुम्हें यह धर्म रुचि उत्पन्न हुई है / अब तुम हमारे वचन ग्रहण करो, जो मैं तुम्हें जिनवाणी के अनुसार कहता हूं उसे चित्त देकर सुनो / यह संसार महा भयानक है / धर्म के अतिरिक्त इस संसार में कोई बन्धु या सहाय नहीं है , अत: एक धर्म ही का सेवन करो। ___ मुनिराज का ऐसा उपदेश पाकर यथायोग्य जिनधर्म ग्रहण करते हुये, मुनि के अथवा श्रावक के व्रत ग्रहण करते हुये अथवा कोई यथायोग्य कोई नियम प्रतिज्ञा लेते हुये, कोई अपने प्रश्नों का उत्तर सुनते हुये, कोई अपने संदेहों का निवारण करते हुये एवं नाना प्रकार के पुण्य का उपार्जन करते हुये ज्ञान की वृद्धि कर मुनिराज को फिर नमस्कार कर मुनिराज के गुणों का स्मरण करते हुये अपने-अपने स्थान को वापस जाते हैं / मुनियों के विहार का स्वरूप यहां से आगे मुनियों के विहार के स्वरूप का कथन करते हैं / जैसे बन्धन हीन, स्वेच्छा से गमन करने वाला हाथी वन में गमन करता है, उसीप्रकार मुनि महाराज गमन करते हैं / हाथी भी धीरे धीरे सूंड को हिलाता हुआ, सूंड को भूमि से स्पर्श करता हुआ, सूंड को इधर-उधर फैलाता हुआ तथा धरती को सूंड से सूंघता हुआ निशंक निर्भय गमन करता है, उसीप्रकार मुनि महाराज भी धीरे धीरे ज्ञान दृष्टि से भूमि का शोधन करते हुये निर्भय, निशंक स्वेच्छा पूर्वक विहार कर्म करते हैं। ___ मुनियों के भी नेत्रद्वार से ज्ञान दृष्टि धरती पर्यन्त फैली होती है / इनके यही (ज्ञान दृष्टि) सूंड (के समान) है, इसलिये हाथी की उपमा संभव हो