Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार करते रहे / इतने में ही मुनिराज का ध्यान खुला तथा उपयोग के बाहर आ जाने से शिष्यजनों को देखने लगे / तब शिष्यजन कहने लगे, रे भाई ! परमदयालु मुनिराज हमारे पर दया करके सन्मुख अवलोकन कर रहे हैं, मानों हम लोगों को बुला ही रहे हैं, इसलिये अब सावधान होकर शीघ्र ही चलो, तथा चल कर अपना कार्य सिद्ध करो / अत: वे शिष्य मुनिराज के निकट जाकर श्री गुरु की तीन प्रदक्षिणा देकर युगल हाथों को मस्तक से लगाकर नमस्कार करते हुये मनिराज के चरण-कमल में मस्तक झुका कर नमस्कार कर चरणों की रज मस्तक पर लगा अपने को धन्य मानते हैं तथा न बहुत दूर, न बहुत नजदीक ऐसे विनय सहित खडे होकर हाथ जोडकर स्तुति करने लगते हैं। क्या स्तुति करते हैं ? हे प्रभो ! हे दयालु ! हे करुणानिधि ! हे परम उपकारी ! संसार समुद्र से तारने वाले, भोगों से परान्मुख, संसार से उदासीन, शरीर से निष्पृह तथा स्व-पर कार्य में लीन ऐसे ज्ञानामृत में लिप्त आप सदा जयवंत वर्ते / हमारे ऊपर प्रसन्न होवें / हे भगवान ! आपके अतिरिक्त हमारा और कोई रक्षक नहीं है, आप हमें संसार समुद्र से निकालें / संसार में पडे जीवों को आप ही आधार हैं, आप ही शरण हैं, अत: जिससे हमारा कल्याण हो वही करें। हमें आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, हम निर्बुद्धि हैं, विवेक रहित हैं, अत: विनय अविनय में समझते नहीं हैं / एक मात्र अपना हित चाहते हैं / जैसे बालक अपनी माता से प्रीति करके चाहे जैसे बोले, लड्डू आदि मांगे, फिर भी माता-पिता उसे बालक जान कर उससे प्रीति ही करते हैं तथा खाने के लिये मिष्ठ आदि उत्तम वस्तु निकाल कर देते हैं, वैसे ही हे प्रभो ! हम बालक हैं , आप मातापिता हैं, अत: बालक जानकर हमें क्षमा करें, हमारी शंकाओं का समाधान करें, संदेहों का निराकरण करें जिससे हमारा अज्ञान अंधकार विलीन हो जावे, तत्व का स्वरूप भाषित हो, स्व-पर की पहचान हो, ऐसा उपदेश हमें दें।