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२४ ॐ ही अहं...,मैं पूजा के द्रव्य को धोता हूँ. स्वाहा । २५ ऊँ ही अहं....,मैं हाथ जोड़ता हूँ. स्वाहा । २६ ऊँ ही स्वस्तये. मैं कलश उठाता है, स्वाहा ! २७ ऊँ ऊँ ऊ ऊरं रं रंरं, मैं दर्भ डालकर आग जलाता हूँ स्वाहा । २८ ॐ हीं मैं पवित्र जलसे द्रव्य शुद्धि करता हूँ, स्वाहा ।
ॐ ही, मैं कुश ग्रहण करता हूँ. स्वाहा ।
ॐ ही, मैं पवित्र गंधोदक को सिर पर लगाता हूँ, स्वाहा । ३१ ॐ ही..., मैं बासक को पालने में मुलाता हूँ, स्वाहा । ३२ ॐ हीं अई असिंपाउसा, मैं बालक को बिठलाता हूँ. स्वाहा ।
३३ ॐ ही श्री अहं, मैं बालक के कान नाक बींधता हूँ, असि आ उ सा स्वाहा ।
३४ ॐ भुक्ति शक्ति के देने वाले अर्हन्त भगवान को नमस्कार मैं बालक को भोजन कराता हूँ ...स्वाहा !
३५ ॐ ......, मैं बालक को पैर धरना सिखलाता हूँ, स्वाहा।
प्रायः ये सभी मंत्र ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार में भी पाये जाते हैं और वहीं से उठाकर यहाँ रक्खे गये मालूम होते हैं । परंतु किसी २ मंत्र में कुछ अक्षरों की कमी बेशी अथवा तबदीली जरूर पाई जाती है और इससे उस विचार को और भी ज्यादा पुष्टि मिलती है जो ऊपर जाहिर किया गया है । साथ ही, यह मालूम होता है कि ये मंत्र जैनसमाज के लिये कुछ अधिक प्राचीन तथा रूढ नहीं हैं और न उसकी व्यापक प्रकृति या प्रवृत्ति के अनुकूल ही जान पड़ते हैं । कितने ही मंत्रों की सृष्टि-उनकी नवीन कल्पना-भट्टारकी युग में हुई है और यह बात भागे चलकर स्पष्ट की जायगी ।
(२) पं० भाशावर के ग्रंथों से भी कितने ही पच, इस त्रिवर्णाचार में, बिना नाम धाम के संग्रह किये गये हैं । छठे अध्याय में २२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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