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[२३६] फँसा हुआ है। साथ ही, उसके व्यक्तियों में आम, तौर, पर, ढूँढने पर भी जैनत्व का कोई खास लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता। इन सब त्रुटियों को दूरकरके अपना उद्धार करने के लिये समाज को ऐसे विकृत तथा क्षित साहित्य से अपने व्यक्तियों को सुरक्षित रखना होगा और ऐसे जाली, ढोंगी तथा कपटी ग्रंथों का सबल विरोध करके उनके प्रचार को रोकना होगा। साथ ही, विचारस्वातंत्र्य को उत्तेजन देना होगा, जिससे सत्य असत्य, योग्य अयोग्य और हेयादेय की खुली जाँच हो सके और उसके द्वारा समाज के व्यक्तियों की साम्प्रदायिक मोहमुग्धता तथा अन्धी श्रद्धा दूर होकर उन्हें यथार्थ वस्तुस्थिति के परिज्ञान-द्वारा अपने विकाश का ठीक मार्ग सूझ पड़े और उसपर चलने का यथेष्ट साहस भी बन सके। इन्ही सदुद्देश्यों को लेकर इस परीक्षा के लिये इतना परिश्रम किया गया है । आशा है इस परीक्षा से बहुतों का अज्ञान दूर होगा, भट्टारकीय साहित्य के कितने ही विषयों पर अच्छा प्रकाश पड़ेगा और उससे जैन अजैन सभी भाई लाभ उठाएंगे।
अन्त में सत्य के उपासक सभी जैन विद्वानों से मेरा सादर निवेदन है कि वे लेखक के इस सम्पूर्ण कथन तथा विवेचन की यथेष्ट जाँच करें
और साथ ही भट्टारकजी के इस ग्रंथ पर अब अपने खुले विचार प्रकट करने की कृपा करें । यदि परीक्षा से उन्हें भी यह ग्रंथ ऐसा ही निकृष्ठ तथा हीन अँचे तो समाजहित की दृष्टि से उनका यह जरूर कर्तव्य होना चाहिये कि वे इसके विरुद्ध अपनी आवाज उठाएँ और समाज में इसके विरोध को उत्तेजित करें, जिससे धूतोंकी की हुई जैनशासन की यह मलिनता दूर हो सके । इत्यलम् । सरसावा जि० सहारनपुर ।
जुगलकिशोर मुख्तार ज्येष्ठ कृ० १३, सं० १९८५ ।
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