Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 253
________________ [२६] मिन छंदोंमें भी रहने दिया है जिससे अन्तमें जाकर ग्रंयका अनुष्टुप. छंदी नियम भंग हो गया है । अस्तु, इन पांचों पयोमेसे पहला पद्य नमूनके तौरपर इस प्रकार है:इनं व्रतं द्वादशभेदभित्रं, यः भावकीयं जिनमाथदृष्टम् । करोति संसारनिपातमीतः प्रयाति कल्याणमसी समस्तम् ॥१४७६॥ यह पब अमितगति-परीक्षाके १९ वें परिच्छेदमें नं० १७ पर दर्ज है । इस पद्यके बाद एक पच और इसी परिच्छेदका देकर तीन पध २० वें परिच्छेदसे उठाकर रखे गये हैं, जिनके नम्बर उक्त परिच्छेदमें क्रमशः ८७, ८८ और ८९ दिये हैं। इस २० वेंपरिच्छेदके शेष सम्पूर्ण पोंको, जिनमें धर्मके अनेक नियमोंका निरूपण था, प्रयकर्ताने छोड़ दिया है । इसी प्रकार दूसरे परिच्छेदोंसे भी कुछ कुछ पद्य छोड़े गये हैं, जिनमें किसी किसी विषयका विशेष वर्णन था। अमितगति-धर्मपरीक्षाकी पद्यसंख्या कुल १९४१ है जिनमें २० पोंकी प्रशस्ति भी शामिल है, पौर पद्मसागर-धर्मपरीक्षाकी पद्यसंख्या प्रशस्तिसे मनग १४०० है; असा कि ऊपर जाहिर किया जाचुका है। इसलिए सम्पूर्ण छोड़े हुए पद्योंकी संख्या लगभग ४४० समझनी चाहिए। इस तरह लगभग ४४० पयोंको निकालकर, २१४ पद्यों में कुछ छंदादिकका परि. घर्तन करके और शेष १२६० पयोंकी ज्योंकी त्यों नाख उतारकर ग्रंथकर्ता श्रीपनसागर गणीने इस 'धर्मपरीचा' को अपनी कृति बनानेका पुण्य सम्पादन किया है जो लोग दूसरों की कृतिको अपनी कृति बनाने रूप पुण्य सम्पादन करते हैं उनसे यह माशा रखना तोन्यप है कि वे उस कृतिके मूलकर्ताका आदरपूर्वक स्मरण करेंगे, प्रत्युत उनसे बहातक बन पड़ता है, वे उस कृतिके मूनकर्ताका नाम छिपाने या मिटानेकीहा चेष्टा किया करते हैं । ऐसा ही यहॉपर पनसागर गणीने भी किया है। प्रमितगतिका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना तो दूर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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