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मंगलाचरणके ये दोनों पद्य उक संहिताके शुल्में क्रमशः नं० २ और ३ पर दर्ज है। सिर्फ दूसरे पद्यके उत्तरार्धमें भेद है । संहितामें वह उत्तरार्ध इस प्रकारसे दिया है:
संग्रहियामि मंदानां बोधाय जिनसंहिताम् । पाठक समझ सकते हैं कि जिस ग्रन्यमें मंगलाचरण भी अन्यकताका अपना बनाया हुआ न हो, वह अन्य क्या भट्टाकलंकदेव जैसे महाकवियोंका बनाया हुआ हो सकता है ? कमी नहीं । वास्तवमें यह अन्य एक संग्रह* अन्य है। इसमें न सिर्फ अयोंका बल्कि शन्दोंका भी संग्रह किया गया है। अन्यकाकी उक्तियाँ इसमें बहुत कम है। बैसा कि इसके एक निम्न लिखित पद्यसे भी प्रगट है:
ग्लोकाः पुरातनाः किश्चिल्लिस्यंते लक्ष्यबोधकाः।
प्रायस्तदनुसारेण मदुकाध कचित् कचित् ॥ १०॥ भट्टारक एकसंधिका समय विक्रमकी १३ वीं शताब्दी पाया जाता है। इसलिए यह प्रतिष्ठापाठ, जिसमें उक्त भट्टारकजीकी संहिताकी बहुत कुछ नकल की गई है, विकमकी १३ वीं शताब्दीके बादका बना हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
(४) इस प्रतिष्ठापाठको १३ वीं शताब्दीके बादका बना हुआ कहनेमें एक प्रबल प्रमाण और भी है। और वह यह है कि इसमें पं० आशाधरजीके बनाए हुए 'बिनयज्ञकल्प' नामक प्रतिष्ठापाठ और 'सागारधर्मामृत' के बहुतसे पद्य, ज्योंके त्यों या कुछ परिवर्तनके साथ, पाये जाते हैं, जिनका एक एक नमूना इस प्रकार है:--
किमिच्छकेन दानेन जगदाशा प्रपूर्य यः । चक्रिमिः क्रियते सोऽहद्यशः कल्पगुमो मतः॥५-२७॥ देशकालानुसारेण व्यासतो वा समासतः।
कुर्वन्कृत्वां क्रियां शको दातुश्चित्तं न दूषयेत् ॥ ५-७३ ॥ पहला पद्य 'सागरधर्मामृत' के दूसरे अप्यायका २८ वाँ और दूसरा पद्य 'बिनयाकल्प' के पहले अध्यायका १४० वाँ पद्य है। जिनयबकल्पको, पंडित आशाघरजीने, वि० सं० १२८५ में और सागारधर्मामृतको उसकी टोकासहित वि० सं० १२९६ में बनाकर समाप्त किया है। इससे स्पष्ट है कि यह अकलंकप्रतिष्ठापाठ विक्रमकी १३ वी शताब्दीके बादका बना हुआ है।
(५) इस प्रपके तीसरे परिच्छेदमें, एक स्थान पर यह दिखलाते हुए कि जिनमंदिरमें विलासिनीके नाचके लिए एक सुन्दर नाचघर (नृत्यमंडप ) भी होना चाहिए, एक पद्य इस प्रकारसे दिया है:
नत्यविलासिनीरम्यनृत्यमंडपमंडितम् ।
पुरः पार्थद्वये यक्षयक्षीमवनसंयुतम् ॥ ११७ ॥
*प्रवकी प्रतिज्ञा और संधियों में भी इसे ऐसा ही प्रगट किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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