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नहीं है, बल्कि छपी हुई प्रतिमेसे, ऊपर दिये हुए, २१ श्लोक और देहलीवाली प्रतिमेसे २५ श्लोक कम कर देनेपर वह पूज्यपादका उपासकाचार रहता है, और उसका रूप प्रायः वही है जो आराकी प्रतियोंमें पाया जाता है । संभव है कि ग्रन्थके अन्तमें कुछ पद्योंकी प्रशस्ति और हो और वह किसी जगहकी दूसरी प्रतिमें पाई जाती हो। उसके लिये विद्वानोंको अन्य स्थानोंकी प्रतियाँ भी खोजनी चाहिएँ।
अब देखना यह है कि, यह ग्रंथ कौनसे पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है। 'पूज्यपाद ' नामके आचार्य एकसे अधिक हो चुके हैं। उनमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध
और बहुमाननीय आचार्य 'जैनेन्द्र ' व्याकरण तथा 'सर्वार्थसिद्धि' आदि ग्रन्थोंके कर्ता हुए हैं । उनका दूसरा नाम 'देवनन्दी' भी था; और देवनन्दी नामके भी कितने ही आचार्योंका पता चलता है ४ । इससे, पर्याय नामकी वजहसे यदि उनमेंसे ही किसीका ग्रहण किया जाय तो किसका ग्रहण किया जाय, यह कुछ समझमें नहीं आता। प्रन्थके अन्तमें अभी तक कोई प्रशस्ति उपलब्ध नही हुई और न ग्रंथके शुरूमें किसी आचार्यका स्मरण किया गया है। हाँ आराकी एक प्रतिके अन्तमें समाप्तिसूचक जो वाक्य दिया है वह इस प्रकार है- " इति श्रीवासुपूज्यपादाचार्यविरचित उपासकाचारः समाप्तः॥"
इसमें 'पूज्यपाद ' से पहले 'वासु' शब्द और जुडा हुआ है और उससे दो विकल्प उत्पन्न हो सकते हैं । एक तो यह कि यह ग्रन्थ 'वासुपूज्य' नामके आचार्यका बनाया हुआ है और लेखकके किसी अभ्यासकी वजहसे—पूज्यपादका नाम चित्तपर ज्यादा चढा हुआ तथा अभ्यासमें अधिक आया हुआ होनेके कारण-'पाद' शब्द उसके साथमें गलतीसे और अधिक लिखा गया है। क्योंकि 'वासुपूज्य' नामके भी आचार्य हए है-एक 'वासुपूज्य' श्रीधर आचार्यके शिष्य थे, जिनका उल्लेख माघनंदिश्रावकाचारकी प्रशस्तिमें पाया जाता है और 'दानशासन ' ग्रंथके कर्ता भी एक 'वासुपूज्य ' हुए हैं, जिन्होंने शक संवत् १३४३ में उक्त ग्रंथकी रचना की है। दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि यह ग्रन्थ 'पूज्यपाद ' आचार्यका ही बनाया हआ है
और उसके साथमें 'वासु' शब्द, लेखकके वैसे ही किसी अभ्यासके कारण, गलतीसे जुड गया है। ज्यादातर खयाल यही होता है कि यह पिछला विकल्प ही ठीक है: क्योंकि आराकी दूसरी प्रतिके अंतमें भी यही वाक्य दिया हुआ है और उसमें 'वासु' शब्द नहीं है। इसके सिवाय, छपी हुई प्रति और देहलीकी प्रतिमें भी यह ग्रन्थ पूज्यपादका ही बनाया हुआ लिखा है। साथ ही, 'दिगम्बरजैनग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ' नामकी सूचीमें भी पूज्यपादके नामके साथ एक श्रावकाचार ग्रन्थका उल्लेख मिलता है।
x एक देवनंदी विनयचंद्रके शिष्य और 'द्विसंधान' काव्य की 'पदकौमुदी' टीकाके कर्ता नेमिचंद्रके गुरु थे, और एक देवनंदी आचार्य ब्रह्मलाज्यकके गुरु थे जिसके पढनेके लिये संवत् १६२७ में 'जिनयज्ञकल्प' की वह प्रति लिखी गई थी जिसका उल्लेख सेठ माणिकचंद्रके 'प्रशस्तिसंग्रह' रजिष्टरमें पाया जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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