Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 278
________________ २६४ ( ३ ) छपी हुई प्रतिमें एक पद्य * इस प्रकार दिया हुआ हैवृक्षा दावाग्निना लग्नास्तत्सख्यं कुर्वते वने । आत्मारूढतरोरग्निमागच्छन्तं न वेत्यसौ ॥ ९१ ॥ इस पद्यका पूर्वार्ध कुछ अशुद्ध जान पडता है और इसी से मराठीमें इस पद्यका जो यह अर्थ किया गया है कि ' वनमें दावाग्निसे प्रसे हुए वृक्ष उस दावाग्नि से मित्रता करते हैं, परन्तु जीव स्वयं जिस देहरूपी वृक्षपर चढा हुआ है उसके पास आती हुई अभिको नहीं जानता है' वह ठीक नहीं मालूम होता । आराकी प्रतियों में उक्त पूर्वार्धका शुद्ध रूप 'वृक्षा दावाग्निलग्ना ये तत्संख्या कुरुते वने' इस प्रकार दिया है और इससे अर्थकी संगति भी ठीक बैठ जाती है - यह आशय निकल आता है कि 'एक मनुष्य वनमें, जहाँ दावाग्नि फैली हुई है, वृक्षपर चढा हुआ, उन दूसरे वृक्षोंकी गिनती कर रहा है जो दावाग्निसे ग्रस्त होते जाते हैं ( यह कह रहा है कि अमुक वृक्षको आग लगी, वह जला और वह गिरा 1 ) परन्तु स्वयं जिस वृक्षपर चढा हुआ है उसके पास आती हुई आगको नहीं देखता है । इस अलंकृत आशयका स्पष्टीकरण भी ग्रंथ में अगले पद्य द्वारा किया गया है और इससे दोनों पद्योंका सम्बंध भी ठीक बैठ जाता है । आराकी इन दोनों प्रतियोंमें ग्रन्थकी श्लोकसंख्या कुल ७५ दी है; यद्यपि, अंतके पर्यो पर जो नंबर पडे हुए हैं उनसे वह ७६ मालूम होती है । परन्तु ' न वेत्तिमद्यपानतः ' इस एक पद्यपर लेखकोंकी गलतीसे दो नम्बर ८ और ९ पड गये हैं जिससे आगेके संख्यांकोंमें बराबर एक एक नम्बरकी वृद्धि होती चली गई है । देहलीवाली प्रतिमें भी इस पद्यपर भूलसे दो नम्बर १३ और १४ डाले गये हैं और इसी लिये उसकी श्लोकसंख्या १०० होने पर भी वह १०१ मालूम होती है । छपी हुई प्रतिकी श्लोकसंख्या ९६ है । इस तरह आराकी प्रतियोंसे छपी हुई प्रतिमें २१ और देहलीवाली प्रतिमें २५ श्लोक बढे हुए हैं। ये सब बढे हुए श्लोक 'क्षेपक' हैं जो मूल ग्रन्थकी मिन मिन्न प्रतियोंमें किसी तरह पर शामिल हो गये हैं और मूल ग्रन्थके अंगभूत नहीं हैं । इन श्लोकोंको निकालकर ग्रन्थको पढनेसे उसका सिलसिला ठीक बैठ जाता है और वह बहुत कुछ सुसम्बद्ध मालूम होने लगता है । प्रत्युत् इसके, इन श्लोकोंको शामिल करके पढनेसे उसमें बहुत कुछ बेढंगापन आ जाता है और वह अनेक प्रकारकी गडबडी तथा आपत्तियोंसे पूर्ण जँचने लगता है । इस बातका अनुभव सहृदय पाठक स्वयं ग्रन्थपरसे कर सकते हैं । इन सब अनुसंधानोंके साथ ग्रन्थको पढनेसे ऐसा मालूम होता है कि छपी हुई प्रति जिस हस्तलिखित प्रति परसे तय्यार की गई है उसमें तथा देहलीकी प्रतिमें जो * देहलीकी प्रतिमें भी यह पद्य प्रायः इसी प्रकारसे है, सिर्फ इतना भेद है कि उसमें पूर्वार्धको उत्तरार्ध और उत्तरार्धको पूर्वार्ध बनाया गया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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